हमास के खिलाफ गठजोड़ बनाने की कवायद
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने मंगलवार को प्रस्ताव दिया था कि इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट की जड़ों से जूझ रहे मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन का विस्तार किया जा सकता है। इसमें सहमति बनी तो हमास के खिलाफ लड़ाई तेज़ की जा सकती है। यरुशलम में इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ एक बैठक के बाद यह प्रस्ताव मैक्रों ने दिया है। इससे यूरोप को क्या हासिल होने वाला है? बड़ा सवाल है।
फ्रांस में हमास के समर्थन में प्रदर्शन पर आधिकारिक रोक आयद है। आगामी 9 जून, 2024 तक फ्रांस में संसदीय चुनाव हो जाना है। 2024 में अमेरिका और भारत में भी आम चुनाव हैं। दुनिया के 53 देशों में 2024 में आम चुनाव हैं, उनमें सर्वाधिक यूरोप के देश हैं। यह कहना मुश्किल है कि ओशिनिया, पालाउ, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में आम चुनावों की रणनीति इस्राइल-फलस्तीन युद्ध से प्रभावित होगी या नहीं, मगर यूरोप, अमेरिका, उत्तर अफ्रीका, एशियाई मुल्क इससे अछूते नहीं रह सकते।
मैक्रों कुछ खुफिया रिपोर्ट्स के आधार पर बताना चाहते हैं कि आइसिस यानी दाएश नये सिरे से अपनी जड़ों का विस्तार फलस्तीनी प्रभाव वाले क्षेत्रों में कर रहा है। अलायंस ने कुर्द लड़ाकों के साथ काम किया, जिन्होंने सीरिया में जमीनी लड़ाई का बड़ा हिस्सा संभाल रखा था। इन लोगों ने प्रमुख इराकी शहर मोसुल सहित उत्तरी सीरिया और उत्तरी इराक में कई क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था। दाएश की जड़ों को समाप्त करने वाले गठबंधन की स्थापना 2014 में की गई थी, इसमें यूरोपीय संघ और अरब लीग वाले देशों के 86 सदस्य शामिल हैं। मगर, कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि दाएश को मिटाने के लिए जो सर्वसम्मति पाई गई थी, वह हमास के खिलाफ अभियान में तब्दील नहीं होगी। ऐसे अलायंस के बैनर तले अरब लीग के देश हमास के विरुद्ध अभियान में आगे आयेंगे, इसमें शक ही है। शांति प्रयास के लिए देर से ही सही, संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय संघ संज़ीदा तो हुआ है। मगर, बातचीत की मेज़ पर महमूद अब्बास दिखते रहे। कायदे से इस्माइल हानिया को मेज पर होना चाहिए, जो गाज़ा पर दशकों से शासन करते रहे, जिनकी एक आवाज़ पर राकेट का दगना बंद हो सकता है।
वर्ष 2006 में दूसरे संसदीय चुनाव के बाद हमास और फतेह पार्टी में खटपट शुरू हुई। दोनों में सत्ता बंट गई। रामल्ला केंद्रित वेस्ट बैंक की सियासत महमूद अब्बास की फतेह पार्टी देखने लगी, जो वहां के राष्ट्रपति घोषित किये गये। 14 जून, 2007 से गाज़ा पट्टी की सत्ता हमास के हाथों में है, उसके प्रधानमंत्री हैं इस्माइल हानिया। हानिया के बराबर हमास में नेता खड़ा करने के प्रयास लगातार हुए हैं। हमास की राजनीतिक गतिविधियों के हवाले से कोई भी पूछेगा, यह एक निर्वाचित सरकार की हैसियत से इस्राइल के विरुद्ध लड़ रहा है, या उसे आतंकी संगठन ही मान लिया जाए?
फ्रेंच इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस (आईएफआरआई) के एली टेनेनबाम ने कहा, दाएश विरोधी गठबंधन के सदस्यों की सूची में कतर, जॉर्डन और तुर्किये जैसे कई देश शामिल रहे हैं, जो हमास पर फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों की रणनीति से इत्तेफाक़ नहीं रखते। मगर, यहूदी मीडिया को माहौल बनाने के लिए लगा दिया गया है। तेल अवीव से मुद्रित हारेत्ज़ अख़बार ने दस ऐसे शोधार्थियों व स्कॉलर्स के शोध पत्रों को प्रकाशित किया है, जिसमें यह बताने की चेष्टा की गई है कि हमास की मारक क्षमता आइसिस से तालमेल की वजह से बढ़ी है। इसमें सबसे दिलचस्प यह है कि आइसिस विरोधी 86 देशों का जो गठबंधन बना था, उसमें इस्राइल सदस्य नहीं था। लंदन स्थित थिंक टैंक ‘चौथम हाउस’ के वरिष्ठ शोधार्थी रेनैड मंसूर ने कहा, ‘दाएश के खि़लाफ लड़ाई में इराकी और सीरियाई आबादी का व्यापक समर्थन था, मगर हमास के खिलाफ ऐसा कोई भी अभियान कठिन होगा, क्योंकि हमास के समर्थन में मुस्लिम देश अधिक हैं। लेकिन जो सबसे ख़तरनाक दिखने लगा है, वह है दोनों तरफ़ होने वाला नरसंहार।’
अफसोस दोनों ओर के नेता विजयी मुद्रा में हैं। नेतन्याहू अपनी घरेलू राजनीति में ख़म ठोक सकते हैं कि देखो हमारा कम नुकसान हुआ, फलस्तीनियों को हमने कीड़े-मकोड़ों की तरह मारा है। इस्राइली अख़बार भी जिस तरह से संख्या बता रहे हैं, उससे महसूस किया जा सकता है कि यहूदी मीडिया बेंजामिन नेतन्याहू के इस एजेंडे को पुष्ट कर रहा है। हमास सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, 7 अक्तूबर से इस्राइली बमबारी में गाजा पट्टी में 5,791 फलस्तीनी नागरिक मारे गए हैं। दूसरी ओर इस्राइली अधिकारियों के अनुसार, हमास के हमले में उनकी तरफ के 1,400 से अधिक लोग मारे गए हैं।
हमास ने अब तक 220 लोगों को बंधक बना रखा है, जिनमें से दो अमेरिकी, दो इस्राइली (85 वर्षीय लाइफशिट्ज और 79 वर्षीय नुरिट कूपर) को स्वास्थ्य कारणों से रिहा कर दिया है। नुरिट कूपर के बयानों को सुनने वाले सिहर गये थे, जैसे वो मिनी नरक से मुक्त हुई हों। यह भी युद्ध नीति का हिस्सा होता है कि शत्रु पक्ष को जितना डराओगे, वह समझौते की मेज पर उतना ही शिथिल दिखेगा।
हमास को लेकर मुस्लिम देश भी रणनीति तेज़ी से बदल रहे हैं। कतर, हमास की सबसे बड़ी आर्थिक ताक़त है। वर्ष 2012 में क़तर के अमीर शेख़ हमद बिन ख़लीफा अल-थानी गाज़ा पट्टी आये और हमास को 1.8 अरब डॉलर की मदद देने की घोषणा की थी। अरब लीग, ट्यूनीशिया हमास की सरपरस्ती करते रहे। नाटो का सदस्य होने के बावज़ूद तुर्की के राष्ट्रपति रिज़ेब तैयप एर्दोगान ने हमास नेता इस्माइल हानिया को हरसंभव सहायता देने का ऐलान किया है। जर्मनी समेत यूरोप के कई देशों में सक्रिय एनजीओ पिछले साल तक हमास को पैसे भेजते रहे हैं।
रक्षा विशेषज्ञ बताते हैं कि हमास के पास आठ से 10 हज़ार रॉकेटों का जो ज़ख़ीरा है, उसमें ईरान का सबसे बड़ा योगदान है। ये रॉकेट मिस्र व सूडान के बरास्ते गाज़ा पट्टी पहुंचाये गये। लेबनान में ‘हिज़बुल्ला’, यमन के ‘होथी’ लड़ाके, हमास की मदद आड़े वक्त करते रहे। यहां सबसे बड़ी दिक्क़त पाकिस्तान के साथ है, जो ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ हो जाता है। आग फलस्तीन में लगती है, उसके हवाले से पाकिस्तान कश्मीर में उकसाने का काम करने लगता है।
लेकिन भारत क्यों कन्फ्यूज़्ड है? कभी यूएन में इस्राइल के साथ दिखता है, कभी विदेश मंत्रालय के आधिकारिक बयान में फलस्तीन को मरहम लगाता मिलता है। किंकर्तव्यविमूढ़ कूटनीति का ही नतीज़ा है कि नई दिल्ली स्थित इस्राइली राजदूत नाओर गिलों ने मांग कर दी है कि भारत सरकार हमास को आतंकवादी संगठन घोषित कर दे। क्या यह संभव है भारत सरकार के लिए? अब तो न उगलते बन रहा है, न निगलते!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।