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अंतिम इच्छा

01:12 PM Aug 15, 2021 IST

बदीउज्जमां

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दोपहर का खाना खाकर मैं बाहर के कमरे में तख्त पर लेटा सोने की कोशिश कर रहा हूं। दो बार नींद आकर टूट चुकी है। एक बार कुत्तों के भौंकने की आवाज से और दूसरी बार गली में बच्चों के शोर मचाने के कारण। एकाएक मेरी आंखें फिर खुल जाती हैं। कहीं आसपास से रोने की आवाज आ रही है। किसी एक व्यक्ति के रोने की आवाज नहीं, सामूहिक रुदन जैसी आवाज है। बहुत सारे लोग मिलकर रो रहे हैं। जैसे किसी की मौत पर रो रहे हों। पास-पड़ोस में जरूर किसी की मौत हो गयी है। कहीं सपाती राज का लड़का तो नहीं चल बसा। बीमार था। आज सवेरे डाक्टर देखने आया था। मैं आवाज की दिशा का पता लगाने की कोशिश करता हूं। आवाज छोटी अम्मा के घर की तरफ से आ रही है। अभी कुछ देर पहले ही तो गया था वहां। सब कुछ ठीक-ठाक था। रोने की आवाज निरन्तर बुलन्द होती जा रही है। न चाहते हुए भी एक आतंक मुझे घेर लेता है। एकाएक अम्मा घबरायी हुई कमरे में आती है और कहती है, ‘देखो तो क्या बात है? तुम्हारी छोटी अम्मा के यहां पिट्टस पड़ी हुई है। खुदा खैर करे। जल्दी जाओ।’

मैं बदहवासी की हालत में छोटी अम्मा के घर की तरफ भागता हूं। पहुंचकर देखता हूं कि वहां सचमुच कुहराम मचा हुआ है। छोटी अम्मा अपना सिर जमीन पर पटक रही है और चीख-चीखकर रो रही है।

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‘हाय! कैसा खौरा लगा दीहिस ई पाकिस्तान हमरे घर को, छीन लीहिस मेरे लाल को।’

घर के तमाम लोग गला फाड़-फाड़कर रो रहे हैं। किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो रही है। एकाएक चारपाई पर पड़े एक गुलाबी कागज पर मेरी नजर पड़ती है। तार को पढ़ते ही सब कुछ मालूम हो जाता है। तार कराची से आया है। कमाल भाई के मरने की सूचना दी गयी है। लेकिन एकाएक यह सब कैसे हो गया। हफ्ते-भर पहले की तो बात है। कमाल भाई का खत आया था। बीमार होते तो जरूर लिखा होता। वैसे उनका स्वास्थ्य बहुत दिनों से खराब चल रहा था। दो साल पहले आये थे तो पहचानना मुश्किल हो गया था उनको। पहले जैसा गठा हुआ शरीर नहीं रहा था। बेहद दुबले हो गये थे। गोरा-चिट्टा रंग भी गायब हो चुका था। चेहरा पीला पड़ गया था और गालों में गड्ढे पड़ गये थे। आंखें अन्दर को धंस गयी थीं। लगता ही नहीं था कि यह वही कमाल भाई हैं। कहते थे, ‘कराची की आबोहवा रास नहीं आयी। भूख बिल्कुल नहीं लगती और हाजमा खराब रहता है।’

मुझे अच्छी तरह याद है, कमाल भाई जब पाकिस्तान जा रहे थे तो घर के सब लोगों ने उन्हें रोकने की कोशिश की थी। छोटे अब्बा तब जीवित थे। उनकी बात भी नहीं मानी थी कमाल भाई ने। छोटे अब्बा ने नाराज होकर कहा था, ‘मैं जानता था कि यह मेरी बात नहीं मानेगा। शुरू से ही यह ऐसा है। मां-बाप को कुछ समझता ही नहीं है।’

कमाल भाई सचमुच बहुत जिद्दी थे। टस से मस नहीं हुए। उल्टे कहने लगे, ‘आप लोग भी निकल चलिए। बाद में पछताइएगा।’ छोटी अम्मा बोली थी, ‘यह तो हमसे न होगा। अपना घर-बार छोड़कर परदेश जा बसें।’ कमाल भाई की शादी हुए पांच-छह महीने ही हुए थे। अपनी नई-नवेली दुल्हन को लेकर वह पाकिस्तान चले गये थे।

रात काफी बीत चुकी है। आसपास के वातावरण पर बहुत गहरा सन्नाटा छाया हुआ है। रह-रहकर छोटी अम्मा के रोने की आवाज सन्नाटे को तोड़ जाती है। सोने की कोशिश करता हूं। जब भी आंखें बन्द करके सोने की कोशिश करता हूं तो कमाल भाई की मुखाकृति सामने आकर मन को विचलित कर देती है। स्मृतियां किसी जुलूस की तरह गुजर रही हैं। सामने चारपाई पर अम्मा भी करवटें बदल रही है। ‘कमाल गरीब जवानी मौत मरा। वह भी परदेस में।’ अम्मा की आवाज मुझे सुनाई देती है। मैं कोई जवाब नहीं देता ः आंआं।

कमाल भाई के जाने कितने चेहरे मेरी आंखों के सामने झिलमिला रहे हैं। बारह-तेरह साल की उम्र के लड़के का चेहरा। बेहद शरीफ और चंचल। अठारह-उन्नीस साल के नवयुवक का चेहरा, भाषणकला में दक्ष और गाने में माहिर। कमाल भाई मुझसे चार-पांच साल ही तो बड़े थे। बचपन में उनसे मैं बहुत डरता था। लेकिन भीतर-ही-भीतर जलता भी कुछ कम नहीं था। उनके सामने मैं तो बिल्कुल मरियल दिखाई देता था। आये दिन वह मुझे पीटते रहते थे। बड़ा क्रोध आता था मुझे। अम्मा से आकर शिकायत करता तो वह भी कुढ़कर रह जाती। अम्मा भी कमाल भाई का कुछ बिगाड़ नहीं सकती थी। अब्बा से कुछ कहने की हिम्मत उनमें भी नहीं थी। अम्मा जानती थी कि अब्बा कमाल भाई को कितना चाहते हैं। वह किसी से कमाल भाई के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। दिल की भड़ास अक्सर मेरे सामने जरूर निकाल लेती थी। कहती, ‘अल्लाह मियां समझिए बाबू। हम कुछ ना बोले हैं। अल्लाह तो सब देखे हैं ना। कैसी जलंतही है यह सलीम की बहू। ऐसी गोतनी अल्लाह मियां हमारे भाग में ही लिखिन था। जैसी माए वैसा बेटा।’

अम्मा और छोटी अम्मा में जैसे जन्म-जन्मान्तर की दुश्मनी थी। अम्मा अब्बा के डर से बहुत कम बोल पाती थी। अब्बा का गुस्सा ही कुछ ऐसा था कि किसी को कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती थी। उनके आते ही घर में सब लोगों को जैसे सांप सूंघ जाता था।

अम्मा मन-ही-मन कमाल भाई से बहुत जलती थी। एक बार जब कमाल भाई स्कूल के इम्तिहान में फेल हो गये थे और मैं पास हो गया था तो अम्मा ने कहा था, ‘अल्लाह मियां घमंड तोड़ दीहिन ना। जो सबको गिरावे, उनको अल्लाह गिरावे।’

और सच पूछिए तो मुझे बेहद खुशी हुई थी। अपने पास होने से ज्यादा इसकी खुशी थी कि कमाल भाई फेल हो गये। अब्बा को भी बहुत दु:ख हुआ था और मेरे पास होने पर उन्हें जितना खुश होना चाहिए था, उतना खुश वह नहीं हुए थे। अब्बा का जब देहान्त हुआ था तो अम्मा के धीरज का बांध जैसे एकाएक टूट गया था। छोटी अम्मा को देखते ही अम्मा ने कहा था, ‘लो, अब तो कलेजा ठंडा हो गया ना तुमरा।’ और छोटी अम्मा को जैसे सांप सूंघ गया था। एक शब्द भी तो न निकला था उनके मुंह से। और जब छोटे अब्बा की मैयत पड़ी हुई थी तो छोटी अम्मा ने भी यही सब कहा था, अम्मा उसी तरह चुप रही थी, जिस तरह छोटी अम्मा चुप रह गयी थीं।

और आज भी ऐसा ही हुआ था। अम्मा को देखते ही छोटी अम्मा फट पड़ी थी। ‘लो अब तो तुमरा कलेजा ठंडा हुआ ना। बहुत खटकता था ना मेरा लाल तुमरे आंख में।’ अम्मा खामोशी से यह सब सुनती रही थी।

दो बरस हुए जब आया था कमाल। कहता था, ‘बड़ी अम्मा, यहां से जाने को जी नहीं चाहता। पर क्या करें मजबूरी है।’ दो महीने रहा था बेचारा। कौन कहिस था हुआं जाने को। नसीब जला कहीं का। सब कहते रह गये, न जाओ। किसी का कहना ना मानिस। बेचारी करमजल्ली बीवी और दो छोटे-छोटे बच्चों का, का हाल होहिए।’ कमाल भाई पिछली बार जाने लगे थे तो मैं भी गया था उन्हें स्टेशन तक छोड़ने। भाभी-बच्चों को वेटिंग रूम में बिठाकर हम दोनों असिस्टैंट स्टेशन मास्टर के दफ्तर में चले गये थे। कमाल भाई को रेलवे पास में एन्ट्री करवानी थी। असिस्टैंट स्टेशन मास्टर सिंधी शरणार्थी था। पास देखते ही चौंक गया, ‘आप कराची में रहते हैं क्या?’ उसने पूछा।

‘जी हां।’ कमाल भाई बोले।

‘हम भी कराची से आया है। हमारा नाम लालवानी है। कराची स्टेशन के बाहर निकलते ही दाईं तरफ टी-स्टॉल है ना। रफीक को हमारा सलाम बोलना। कहना लालवानी बहुत याद करता है। हम दोनों हैदराबाद का है। उसे बहुत-बहुत सलाम कहना। और कराची स्टेशन पर अब्दुस्सत्तार टी.सी. है। उसने कहना लालवानी मिला था। बहुत याद करता है।’ बहुत देर तक वह कमाल भाई से कराची के बारे में पूछता रहा। कमाल भाई उसके सवालों के जवाब में हां-हूं करते रहे। फिर चुपके से हम दोनों वहां से खिसक गये।

‘चलो जरा स्टेशन के बाहर चाय पी आएं।’ कमाल भाई बोले। मिट्टी के कुल्हड़ वाली चाय पीते हुए कमाल भाई ने कहा था : ‘जानते हो कराची में ऐसी चाय पीने को जी तरस जाता है। ऐसी सौंधी चाय कराची में कहां नसीब। गया में मुझे दो जगह की चाय सबसे ज्यादा पसन्द थी। स्टेशन पर इस दुकान की चाय और शहर में कोतवाली के पास बासुदेव टी-स्टॉल की चाय। इस बार बासुदेव टी-स्टॉल बन्द देखा। लगता है वह कहीं बाहर चला गया।’

बासुदेव टी-स्टॉल बहुत दिनों से बन्द पड़ा था। मैंने यह जानने की कभी कोशिश नहीं की थी कि बासुदेव शहर में है भी या नहीं। फिर कमाल भाई बोले थे, ‘जानते हो ख्वाजा, पाकिस्तान जाकर मैंने सख्त गलती की। अब्बा का कहा मान लेता तो अच्छा रहता। मेरी हालत धोबी के गधे की हो गयी है। न घर का, ना घाट का। सोचता हूं मुल्क का बंटवारा न होता तो अच्छा था।’

मैं कमाल भाई की बातें खामोशी से सुनता जा रहा था। वह बूढ़ों जैसी बातें कर रहे थे। अब यह सोचने से क्या फायदा। मुल्क का बंटवारा हो चुका था और यह भी एक हकीकत थी कि कमाल भाई पाकिस्तान चले गये थे। सांप जब निकल गया है तो लकीर को पीटते रहने का क्या लाभ। जब गाड़ी प्लेटफार्म पर सरकने लगी तो मैंने देखा कि लालवानी तेजी से भागता हुआ कमाल भाई के डिब्बे की तरफ आ रहा है। प्लेटफार्म पर सरकती हुई ट्रेन के साथ लालवानी कुछ दूर तक दौड़ता रहा और चीख-चीखकर कहता रहा, ‘मेरा सलाम जरूर बोलना रफीक टी-स्टॉल वाले को और अब्दुस्सतार को और मिस्टर लतीफ को।’ ट्रेन प्लेटफार्म से आगे निकल चुकी थी। कुछ दूर तक कमाल भाई का हिलता हुआ हाथ दिखाई देता रहा।

मैंने चारों तरफ एक नजर डाली। प्लेटफार्म बिल्कुल वीरान दिखाई दे रहा था। एक तरफ लालवानी खड़ा हांफ रहा था। मैंने सोचा था, यह जिन्दगी भी अजीब चीज है। लालवानी, जिसकी रग-रग में कराची बसा हुआ है, गया की जमीन पर खड़ा हांफ रहा है और कमाल भाई, जो गया की हवाओं के लिए तरसते हैं, कराची में आजीवन रहने पर मजबूर हैं।

उस रोज स्टेशन पर कमाल भाई की बातें सुनकर मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ था। कमाल भाई की विचारधारा तो शुरू से ही मुस्लिम लीगी थी। ‘पाकिस्तान लेकर रहेंगे’ और ‘कायदे आजम जिन्दाबाद’ के नारे लगाते मैं उन्हें देख चुका था। मुहम्मद अली जिन्ना जब गया आये थे और बहुत बड़ा जुलूस निकाला गया था तो आगे-आगे रहने वालों में कमाल भाई भी थे। यह उन दिनों की बात है जब मुस्लिम लीग का असर तेजी से फैल रहा था और राजनीति के स्तर पर हिन्दू और मुसलमान बड़ी हद तक बंट चुके थे। राजनीति की सतह पर हिन्दुओं को मुसलमानों से शिकायतें थीं और मुसलमानों को हिन्दुओं से। पर रोजमर्रा की जिन्दगी में पूरा सम्पर्क बना हुआ था। सोचता हूं तो यह सारा झगड़ा मुझे अम्मा और छोटी अम्मा के झगड़े जैसे लगता है। तमाम शिकवे-शिकायतें और उतार-चढ़ाव के बावजूद अम्मा और छोटी अम्मा के सम्बन्धों में कभी ऐसी दरार नहीं पड़ी कि दोनों एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हो जाएं। हम लोगों के रिश्ते के एक भाई थे जो विचारधारा की दृष्टि से कौम-परस्त मुसलमान कहे जा सकते थे। उम्र में मुझसे और कमाल भाई से बड़े थे। कांग्रेस, गांधीजी और मौलाना अबुल कलाम आजाद के बड़े भक्त थे। कमाल भाई से उनकी अक्सर बड़ी जोरदार बहसें हुआ करती थीं। इनका नाम तो अहमद इमाम था लेकिन बहुत-से लोग इन्हें गांधीजी कहकर पुकारते थे। औरों की देखा-देखी हम लोग भी उन्हें गांधी भाई कहने लगे थे।

एक बार हमारे मुहल्ले में मुस्लिम लीग का कोई जलसा हुआ था। इसमें कमाल भाई ने इकबाल का मशहूर तराना ‘चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्तां हमारा, मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा’ गाकर सुनाया था। कमाल भाई ने बड़ा अच्छा गला पाया था और उनके गाने की सब लोगों ने बहुत तारीफ की थी। जलसा खत्म होने पर कमाल भाई हमारे यहां आये तो गांधी भाई भी मौजूद थे। गांधी भाई ने शायद कमाल भाई को छेड़ने की खातिर कहा था : ‘क्यों भाई कमाल, तुम्हें कोई और नज्म गाने को नहीं मिली जो इकबाल का यह तराना गाने लगे। इकबाल फलसफी हो सकते है लेकिन इनसान के दर्द को वह नहीं समझते।’

‘अजी आप क्या समझेंगे इकबाल की शायरी को।’ कमाल भाई ने नाराज होकर जवाब दिया था। उस रोज गया स्टेशन पर कमाल भाई की बातें सुनकर मुझे यही लगा कि गांधी भाई ने इकबाल के बारे में ठीक ही कहा था। कमाल भाई खुद को इकबाल के सांचे में ढला हुआ मुसलमान समझते थे। तभी तो गया से अपना रिश्ता तोड़ते हुए उन्हें जरा भी हिचक नहीं हुई। पर क्या यह रिश्ता टूट सका? उनका उदास चेहरा इस बात का साक्षी था कि गया से उनकी रूह का जो रिश्ता है, वह कभी नहीं टूट सकता।

गांधी भाई ने एक बार कहा था, ‘इकबाल का सारा नजरिया दरअसल इनसान-विरोधी है। हालांकि बजाहिर ऐसा दिखाई नहीं देता। लेकिन उनका ‘मर्दे मोमिन’ नीत्शे के अतिमानव (सुपर मैन) के अलावा कुछ और नहीं है। नीत्शे ने हिटलर को जन्म दिया था। देखना, इकबाल का ‘मर्दे मोमिन’ भी बड़ी तबाही लाएगा।’

गांधी भाई और कमाल भाई में अकसर लम्बी बहसें होती थीं और कभी-कभी तो इनमें कटुता भी आ जाती थी। बहस में बहुत-से दूसरे लोग भी शामिल हो जाते थे। बिचारे गांधी भाई हमेशा अकेले पड़ जाते थे। मुस्लिम लीग का विष इतना फैल चुका था कि गिनती के लोग ही इससे मुक्त रह सके थे।

देश-विभाजन से कोई साल-डेढ़ साल पहले की बात है। टाउन हाल में कौम-परस्त मुसलमानों का कोई जलसा हो रहा था। बाहर से भी कुछ नेता आये हुए थे। मुस्लिम लीग ने जलसे में हड़बोंग करने के लिए अपने वालंटियर भेज दिये थे। इनमें कमाल भाई भी थे। कमाल भाई और गांधी भाई की नोक-झोंक सुनते रहने के कारण राजनीति में मेरी भी कुछ रुचि हो गयी थी। मैं भी इस जलसे में गया था। जैसे ही जलसे की कार्रवाई शुरू हुई लीग के वालंटियरों ने हड़बोंग मचाना शुरू कर दिया। गांधी भाई और दूसरे लोगों ने उन्हें रोकने की कोशिश की। बात हाथापाई तक पहुंच गयी। इसी बीच किसी ने बिजली का मेन स्विच ऑफ कर दिया और जलसा दंगे में बदल गया। गांधी भाई को लीग के वालंटियरों ने बुरी तरह पीटा था। वह अधमरे-से हो गये थे। कमाल भाई ने कहा था, ‘गद्दारों का यही अंजाम होता है। कौम से गद्दारी करेंगे तो क्या कौम फूलों के हार पहनाएगी।’ कमाल भाई कहते, ‘मुसलमानों की संस्कृति, भाषा, पहनावा, खानपान, धर्म, रीति-रिवाज सब कुछ हिन्दुओं से अलग हैं। वे अलग कौम हैं। अखंड भारत में उनकी संस्कृति सुरक्षित नहीं रह सकती।’

गांधी भाई कहा करते थे, ‘धर्म को छोड़कर हिन्दुओं और मुसलमानों में कोई अन्तर नहीं है। जो अन्तर दिखाई देता है, वह केवल बाहरी है। इससे अधिक अन्तर तो खुद मुसलमानों के विभिन्न वर्गों और हिन्दुओं के विभिन्न वर्गों में दिखाई दे जाएगा। क्या तुमने कभी गौर किया है कि आम मुसलमान की जिन्दगी जन्म से लेकर मौत तक जिन रीति-रिवाजों के दायरे में घूमती है, वे आम हिन्दू से जरा भी अलग नहीं हैं। जन्मोत्सव, छठी की रस्म, शादी-ब्याह के गीत, यहां तक कि मरने के बाद बहुत-से संस्कार बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे कि हिन्दुओं के। दो कौम का नजरिया बहुत बड़ा जाल है जिसमें भोले-भाले मुसलमानों को फांसने की कोशिश की जा रही है। इसके नतीजे बहुत खतरनाक होंगे।’ गांधी भाई के तर्कों में बड़ा वजन था।

स्मृतियों का जुलूस एक बिन्दु पर पहुंचकर रुक-सा गया है। गया रेलवे स्टेशन पर पाकिस्तान को जाने वाली स्पेशल ट्रेन खचाखच भरी हुई है। जितने आदमी अन्दर हैं, उससे कहीं ज़्यादा प्लेटफार्म पर हैं। जाने वालों में कमाल भाई भी हैं। हजारों आदमी इन्हें विदा करने आये हैं। इन्होंने अपनी इच्छा से उस जमीन को हमेशा के लिए छोड़ने का फैसला किया हैै। इन्हें अपने निर्णय पर कोई पछतावा, कोई दुख, कोई ग्लानि नहीं है। गांधी भाई भी स्टेशन पर मौजूद हैं। ट्रेन प्लेटफार्म पर सरकने लगती है। हजारों आंखें ट्रेन को जाते देखती रहती हैं और जब तक ट्रेन दृष्टि से ओझल नहीं हो जाती, वे उसका पीछा करती रहती हैं। गांधी भाई फूट-फूटकर रोने लगते हैं। सिसकियों में डूबे हुए उनके शब्द आज भी मेरे कानों में गूंज रहे हैं, ‘इन्हें वतन कभी नसीब नहीं होगा। बनी इसराइल की तरह ये हमेशा भटकते रहेंगे और अपनी मिट्टी और हवाओं के लिए तरसते रहेंगे।’

कमाल भाई के शब्द मेरे कानों में गूंजने लगते हैं। उन्होंने कहा था, ‘दिन तो रोजी के झमेले में किसी तरह बीत जाता है। लेकिन रात के सन्नाटे में एक अजीब पुरअसरार वीरानी का एहसास छाने लगता है। एक अजीब अस्पष्ट-सा ख्याल दिल और दिमाग पर हावी होने लगता है, जैसे फिर वहीं लौट जाना है जहां से आये थे। लेकिन कब और कैसे? इन सवालों के जवाब नहीं मिलते।’

रिवाज के मुताबिक चौथे दिन ‘कुल’ हुआ। उसी बैठक में जहां बरसों पहले छोटे अब्बा का ‘कुल’ हुआ था, कमाल भाई का ‘कुल’ भी हुआ। अगरबत्तियां जलायी गयीं। कुरान शरीफ की तिलावत हुई, फिर मीलाद हुआ। मरने वाले की रूह की शान्ति के लिए दुआएं मांगी गयीं। फिर गरीबों को खाना खिलाया गया। दोपहर होते-होते ‘कुल’ की सारी गहमागहमी खत्म हो गयी। मैं बैठक में अकेला बैठा जिन्दगी के उतार-चढ़ाव के बारे में सोचता रहा। वर्षों पहले जब छोटे अब्बा मरे थे या उनसे भी पहले जब अब्बा का इन्तकाल हुआ था तो उनके ‘कुल’ में भी यही सब कुछ हुआ था। पर इसके अलावा भी कुछ हुआ था जो कमाल भाई के ‘कुल’ में हम लोग नहीं कर सकते थे। हम सब ‘कुल’ के दिन शाम को अगरबत्ती और फूल की चादर लेकर अब्बा और छोटे अब्बा के मजार पर गये थे और फातिहा पढ़कर लौट आये थे। पर कमाल भाई के कब्र पर हम लोग कहां जा सकते थे। वह तो हजारों मील दूर थे। मैं भावुकता की तरंगों में बहकर सोचने लगा, कमाल भाई ने जिन्दगी की आखिरी घड़ियों में जाने अपने घर को, अपने बचपन को, गया के गली-कूचों को, अपनी मां को, अपने भाई-बहनों को किस-किस तरह याद किया होगा?

उसी रोज शाम को डाक से भाभी का खत आया। लिखा था-‘उन्हें जैसे मालूम हो गया था कि अब नहीं बचेंगे। जब से बीमार पड़े थे यही कहते थे-मुझे गया ले चलो अम्मा के पास। मैं कराची में रेगिस्तान में मरना नहीं चाहता। मुझे वहीं दफन करना फलगू नदी के उस पार कब्रिस्तान में जहां अब्बा की कब्र है और बड़े अब्बा की।’

एकाएक मुझे लगा जैसे वक्त ने अपना दामन समेट लिया है और मौलवी साहब की कड़कदार आवाज मेरे कानों से टकरा रही है : ‘हजरत यूसुफ ने अपनी जिन्दगी का बड़ा हिस्सा मिस्र में ही गुजारा और जब उनकी उम्र एक सौ साल की पहुंची तो उनका इन्तकाल हो गया। हजरत यूसुफ ने इन्तकाल से पहले अपने खानदान वालों से यह वायदा कराया कि वे उन्हें मिस्र की जमीन में दफन नहीं करेंगे, बल्कि जब खुदा का यह वायदा पूरा हो कि बनी इसराइल दुबारा फिलिस्तीन यानी अपने पुरखों की जमीन में वापस हों तो उनकी हड्डियां वे अपने साथ लेते जाएंगे और वहीं मिट्टी के सुपुर्द कर देंगे। चुनांचे उन्होंने वायदा किया और हजरत यूसुफ का इन्तकाल हो गया तो उनको ममी करके ताबूत में हिफाजत से रख दिया और जब हसरत मूसा के जमाने में बनी इसराइल मिस्र से निकले तो इस ताबूत को भी अपने साथ लेते हुए गये और पुरखों की जमीन में ले जाकर इसे दफन कर दिया।’

‘हजरत यूसुफ ने ऐसा क्यों कहा मौलवी साहब?’ कमाल भाई ने पूछा था। ‘हजरत यूसुफ आखिर को इनसान थे भाई। मिस्र में उन्होंने बड़ी शान से हुकूमत की। लेकिन वतन फिर भी वतन है। मिट्टी खींचता है भाई। तुम अभी इसे नहीं समझोगे’, मौलवी साहब बोले थे।

तब कौन जानता था कि एक जमाना ऐसा भी आएगा जब कमाल भाई को अपनी सम्बन्धियों से वही कुछ कहना पड़ेगा जो हजरत यूसुफ ने बनी इसराइल से कहा था। पर बनी इसराइल से तो खुदा ने वायदा किया था कि वे पुरखों की जमीन में फिर वापस होंगे। कमाल भाई ने तो खुदा ने ऐसा वायदा नहीं किया था। और तभी मुझे लगता है कि कमाल भाई बहुत लम्बे अर्से तक एक बहुत बड़े झूठ के सहारे जीते रहे थे। लेकिन उनकी जिन्दगी में ऐसा समय भी आया था जब उन्होंने इस झूठ को पहचानना शुरू कर दिया था और अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में तो उन्होंने झूठ से इस लबादे को बिल्कुल उतार फेंका था और उस सच्चाई को पूरी तरह से महसूस कर लिया था, जिसे गांधी भाई बहुत पहले ही जान चुके थे। और तब कमाल भाई का चेहरा कोई एक चेहरा नहीं रहता। वह हजारों-लाखों चेहरों में बदलने लगता है। चेहरे जो न हिन्दू हैं, न मुसलमान-महज इनसान के चेहरे जो अपनी जड़ों से कटकर बहुत करुण बन गये हैं और जिन्हें निहित स्वार्थों के षड्यन्त्र ने आजीवन नरक में झोंक दिया है।

साभार : हिंदी समय

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