दवा के दावे
भारत में सदियों से ऋषि-मुनियों की सतत साधना से अस्तित्व में आई आयुर्वेदिक दवाओं की स्वीकार्यता रही है। जिसमें प्राकृतिक उपचार और जड़ी-बूटियों के जरिये चिकित्सा की परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती रही है। इस उपचार में आहार-विहार की बड़ी भूमिका भी रही है। लेकिन वक्त के साथ आयुर्वेदिक दवाओं का बड़ा बाजार तैयार हुआ है। इस ऋषिकर्म के कारोबार बनने के अपने खतरे हैं। पहले गरीब लोग, जो महंगे एलोपैथिक उपचार करने में सक्षम नहीं होते थे, गांव-देहात के वैद्यों से अपनी माली हालत के चलते उपचार कराते थे। लेकिन कालांतर बड़ी पूंजी के कारोबारी इस धंधे में कूदे और आयुर्वेदिक दवाओं की बिक्री के लिये विज्ञापनों के जरिये बड़े-बड़े दावे करने लगे। हाल ही में एलोपैथिक चिकित्सकों के एक राष्ट्रीय संगठन ने शीर्ष अदालत में याचिका दायर करके देश के एक बहुचर्चित योगी के आयुर्वेदिक उपचार के दावों की सार्थकता पर सवाल उठाये थे। इस बात को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने आयुर्वेद कंपनी के कर्ताधर्ताओं को आड़े हाथ लिया। कोर्ट ने भ्रामक दावों और उससे जुड़े विज्ञापनों के खतरों की याद दिलायी। दरअसल, हर्बल उत्पादों के जरिये होने वाले उपचार के परिणामों की तुलना आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की खामियों के साथ करने पर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन को आपत्ति थी। यही वजह है कि कोर्ट का कहना पड़ा है कि हर्बल उत्पादों का कारोबार करने वाली कंपनी के कर्ताधर्ताओं को चिकित्सा की आधुनिक प्रणाली के बारे में अनावश्यक बयान देने से बचना चाहिए। इतना ही नहीं, कोर्ट ने चेताया कि यदि किसी बीमारी विशेष को ठीक करने वाली दवाओं के बारे में गलत ढंग से दावा किया गया तो एक करोड़ का जुर्माना लगाया जा सकता है। दरअसल, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानी आईएमए ने एक याचिका में आरोप लगाया है कि विज्ञापनों में एलोपैथी को अपमानित किया गया। इसके साथ ही असत्यापित दावों के जरिये डॉक्टरों की छवि को खराब करने का प्रयास किया गया है। जिससे आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से जुड़े लोग खुद को आहत महसूस कर रहे हैं।
दरअसल, राजग सरकार के दौरान राजाश्रय में देश में योग व आयुर्वेद का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ है। साथ ही भारतीय परंपरागत पूरक चिकित्सा पद्धतियों को प्रोत्साहन देने का प्रयास किया गया है। भारत ही नहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ मिलकर पूरक चिकित्सा पद्धतियों में समन्वय की कोशिश की गई है। इसमें दो राय नहीं कि लगातार महंगी होती एलोपैथी चिकित्सा पद्धति के भी अपने किंतु-परंतु हैं। लेकिन इसके बावजूद दवाओं की विश्वसनीयता और उपभोक्ता संरक्षण से जुड़े कानूनों का अतिक्रमण करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती। अब चाहे वह एलोपैथिक उपचार हो या आयुर्वेद से जुड़ा उपचार। निश्चित रूप से अब चाहे आधुनिक चिकित्सा से जुड़े उत्पाद हों या आयुर्वेद से जुड़े, सबको इन्हें बढ़ावा देने का अधिकार है। लेकिन प्रचार के जरिये दूसरे की रेखा मिटाने या छोटा करने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता है। ये कारोबार के नैतिक नियमों का भी उल्लंघन है। दरअसल, आईएमए ने अपनी याचिका में एलोपैथी और इसके चिकित्सकों के बारे में दिये गये बयानों को भ्रामक व मिथ्या दावों पर आधारित बताया था। साथ ही नियामक अधिकारियों की निष्क्रियता और उदासीनता की ओर भी इशारा किया गया। उल्लेखनीय है कि बीते साल भी कोविड-19 टीकाकरण अभियान और आधुनिक चिकित्सा के खिलाफ प्रचार के मामले में केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया गया था। निस्संदेह, शीर्ष अदालत ने अपनी गरिमा के अनुकूल कहा कि वह इस मामले को एलोपैथी बनाम आयुर्वेद की बहस नहीं बनाना चाहती। उसका मकसद सिर्फ भ्रामक विज्ञापनों का एक व्यावहारिक समाधान ढूंढ़ना ही है। इसके लिये केंद्र सरकार से व्यावहारिक उपाय पेश करने को कहा गया है। जिसमें चिकित्सा प्रणाली से जुड़े किसी भी विज्ञापन की सख्त और निष्पक्ष समीक्षा होनी चाहिए। कोर्ट ने इस बात पर भी बल दिया कि उपचार से जुड़े किसी भी भ्रामक विज्ञापन को तुरंत हटाया जाना चाहिए। साथ ही सख्त जुर्माना लगाया जाना चाहिए। निस्संदेह, स्वास्थ्य हितों से किसी भी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता है।