दोहरा जीवन
एक राजा से एक चित्रकार ने अनुरोध किया, ‘राजन, क्या मैं आपका चित्र बना सकता हूं? राजा ने अनुमति देते हुए कहा, जिस प्रकार चंद्रमा तारों के बीच सुशोभित होता है, उसी प्रकार सभासदों के साथ मेरा चित्र बनाओ।’ रात में उसके पास राजा का एक दरबारी पहुंचा। उसने चित्रकार से कहा, ‘देखो, मेरे कान छोटे हैं, पर चित्र में मेरे कान छोटे नहीं दिखने चाहिए।’ उसके बाद एक वृद्ध दरबारी आया। उसने कहा, ‘बंधु, अब मैं बूढ़ा हो गया हूं। देखो, अभी मेरा पेट निकल गया है। चित्र में पेट इस रूप में न आए तो ठीक रहेगा।’ राजा ने चित्र देखा तो हैरान रह गया। उसने कहा, ‘मेरा चित्र तो सही बनाया पर दरबारियों के चेहरे पर मुखौटा क्यों लगा दिया?’ चित्रकार ने राजा को बताते हुए कहा, ‘कोई भी दरबारी अपने असली रूप में नहीं दिखना चाहता था।’ राजा ने कहा, ‘हम दोहरा जीवन जीते हैं। अंदर से कुछ होते हैं, पर ऊपर से कुछ और दिखना चाहते हैं।’
प्रस्तुति : सुरेन्द्र अग्निहोत्री