For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.

चीन समर्थक दलों के प्रभुत्व से भारतीय हितों पर असर नेपाल में नया सत्ता गठबंधन

07:36 AM Mar 07, 2024 IST
चीन समर्थक दलों के प्रभुत्व से भारतीय हितों पर असर नेपाल में नया सत्ता गठबंधन
Advertisement

केएस तोमर
नयी गठबंधन सरकार के गठन के बाद नेपाल का भारत के प्रभाव से खिसकने का खतरा है, जिसमें कम्युनिस्टों का वर्चस्व है जो वैचारिक रूप से ड्रैगन के प्रति प्रतिबद्ध हैं। हिमालयी देश में राजनीतिक घटनाओं का अप्रत्याशित मोड़ और अस्थिर स्थिति को अपने पक्ष में करने में ‘प्रचंड’ की महारत, एक बड़ी आत्म-केंद्रित उपलब्धि हो सकती है। लेकिन इसे भारत से संबंधों के लिए एक प्रतिकूल पूर्वाभास के रूप में देखा जा रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि नई सरकार मुख्य रूप से चीन समर्थक गुटों का संयोजन है, जिसमें प्रचंड के नेतृत्व वाले सीपीएन (माओवादी केंद्र) और पूर्व प्रधानमंत्री केपीएस ओली के नेतृत्व वाली सीपीएन-यूएमएल व नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी) शामिल हैंै।
यह सच्चाई है कि ओली नई सरकार पर हावी रहेंगे क्योंकि उनके पास प्रचंड के सिर्फ 32 सांसदों के मुकाबले 77 सांसद हैं। राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी (21) और जनता समाजवादी (12) सहित अन्य दो साझेदार सत्ता साझा करेंगे। गठबंधन सहयोगियों की कुल ताकत 142 है, जबकि सदन में साधारण बहुमत का आंकड़ा हासिल करने के लिए 138 सांसदों की आवश्यकता हैै। इससे पहले नेपाली कांग्रेस प्रचंड की गठबंधन सहयोगी थी, लेकिन दोनों में जटिल मुद्दों पर मतभेद हो गया।
पिछले शासन में भारत समर्थक पार्टी, नेपाली कांग्रेस का वर्चस्व था, लेकिन राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि नये गठबंधन से परिदृश्य में बड़ा बदलाव आएगा। इसलिए भारत को नेपाल के साथ सामान्य संबंध बनाने के लिए अपनी विदेश नीति की प्राथमिकताओं पर फिर से काम करने की जरूरत है।
दूसरा, भारत को नयी सत्ता के भविष्य के रुख के बारे में सावधान रहना होगा। पिछले साल प्रचंड की नई दिल्ली यात्रा के दौरान कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए थे। उससे कई वर्षों के गतिरोध के बाद त्रिपक्षीय बिजली समझौता एक वास्तविकता बन गया है, जो 10 वर्षों के लिए नेपाल से भारत में 10,000 मेगावाट बिजली का आयात सुनिश्चित करेगा, जिससे हजारों करोड़ का राजस्व सुनिश्चित होगा और बाद में उपभोक्ताओं के लिए अतिरिक्त बिजली उपलब्ध होगी। विशेषज्ञों का कहना है कि नया कम्युनिस्ट शासन सत्ता समझौते को खत्म करने का आत्मघाती कदम उठा सकता है। ऐसा करना दोनों देशों के हित में नहीं है।
भारत ने 15 जून, 2022 को अग्निपथ योजना शुरू की थी, जिसे नेपाल तक भी लागू किया गया था। लेकिन कुछ आपत्तियों के कारण हिमालयी राष्ट्र में यह अभी भी अधर में है। वहां के युवा अग्निवीर के रूप में भारतीय सेना में शामिल होने के इच्छुक हो सकते हैं लेकिन पिछली दो सरकारों ने अपने पैर पीछे खींच लिए थे और आने वाली तीसरी सरकार अलग नहीं हो सकती है। काठमांडू में कुछ सेवानिवृत्त जनरलों ने योजना का विरोध किया था। ओली की पार्टी रुकावट पैदा कर सकती है और उसका रुख चीन की ओर हो सकता है जो भारत को अस्वीकार्य हो सकता है।
नये शासन में केपीएस ओली को नेपाल को चीन की ओर धकेलने का एक और मौका मिलेगा। ओली गुट का प्रभुत्व भारत के लिए समस्याग्रस्त साबित हो सकता है बता दें कि पूर्व प्रधानमंत्री ने नेपाल-भारत संबंधों को सबसे निचले स्तर पर ला दिया था जब एक मानचित्र को फिर से तैयार किया गया था जिसमें लिपुलेख जैसे भारतीय क्षेत्रों को अपने क्षेत्रों के रूप में दिखाया गया था। हालांकि इसे भारत ने सिरे से खारिज कर दिया। ओली ने 8 मई, 2020 को भारत द्वारा उत्तराखंड में धारचूला के साथ लिपुलेख दर्रे को जोड़ने वाली रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण सड़क खोलने पर भी आपत्ति जताई थी।
विशेषज्ञों ने भारत और नेपाल के बीच सदियों पुराने संबंधों को अस्थिर करने के लिए ओली की कार्रवाइयों के लिए चीनी रणनीति को जिम्मेदार ठहराया था जो फिर से काम करेगी। नेपाल ने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के केंद्रशासित प्रदेशों को दर्शाने वाला संशोधित राजनीतिक मानचित्र लाने की भारत की कार्रवाई का भी विरोध किया था। भारत की सुरक्षा से जुड़े इस मुद्दे के तूल पकड़ने का पूरा खतरा है, इसलिए नई व्यवस्था में हमें अधिक सतर्क रहना होगा। एक और गंभीर मुद्दा बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के कार्यान्वयन के बारे में चीन की महत्वाकांक्षी योजना से संबंधित है। भारत-नेपाल की खुली सीमा के कारण इस योजना को लेकर कोई भी प्रगति सुरक्षा जोखिम होगी। चीन ने नेपाल में 1.34 बिलियन अमेरिकी डालर से अधिक का निवेश किया है और हमेशा नेपाल को शामिल करने का दबाव बनाया है।
पर्यवेक्षकों का मानना है कि नागरिकता विधेयक की मंजूरी को पिछली प्रचंड-देउबा सरकार द्वारा भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ निकटता प्रदर्शित करने के प्रयास के रूप में देखा गया था जिससे चीन नाराज हो गया था। दूसरा, प्रचंड ने 2022 में अपनी पहली यात्रा के लिए चीन के बजाय भारत को चुना, जिससे अच्छा संकेत गया और यह फलदायी साबित हुआ। यह सात समझौतों पर हस्ताक्षर से स्पष्ट था। प्रचंड ने सीमा विवाद जैसे जटिल मुद्दे को छूने से परहेज किया था। लेकिन बदले हुए परिदृश्य में दोनों शीर्ष नेताओं के तौर पर चीन को तरजीह दी जा सकती है। प्रचंड और ओली कट्टर कम्युनिस्ट हैं जो बीजिंग में अपने भाइयों से निपटने में अधिक सहज महसूस करेंगे। नेपाल, मालदीव और पाकिस्तान को दूर करने की चीन की कोशिश से भारत को सजग होना चाहिए, जिसे क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए विदेश नीति पर फिर से काम करने की जरूरत है।

लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।

Advertisement

Advertisement
Advertisement
Advertisement
×