मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

सुनहरे दौर की दस्तावेजी बयानी

08:13 AM Sep 10, 2023 IST

पुस्तक समीक्षा

Advertisement

पुस्तक : हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के संपादक : उद‍्भ्रांत प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, दिल्ली पृष्ठ : 616 मूल्य : रु. 699.

सुभाष रस्तोगी

Advertisement

रमाकांत शर्मा ‘उ‌द‍्भ्रांत’ का नाम समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में किसी औपचारिकता का मोहताज नहीं है। वे बहुमुखी व्यक्तित्व और बहुआयामी प्रतिभा के यशस्वी साहित्यकार के रूप में सुप्रतिष्ठित हैं। सन‍् 1959 में अपनी रचना-यात्रा का प्रारंभ करते समय वे मात्र ग्यारह वर्ष के ऐसे बालक थे जो सारे संसार को उत्सुकता से निहारते थे और अनगिनत सवाल दिन-रात उनके मानस में घुमड़ते रहते थे और उन्हीं सवालों का उत्तर पाने के लिए साहित्य की अनेक विधाओं में उनका साहित्य आज हमारे समक्ष उपलब्ध है।
रमाकांत शर्मा ‘उद्‌भ्रांत’ की सद्य: प्रकाशित कृति ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’ इस वर्ष के प्रारंभ में अचानक मिले एक हजार इकतालीस (1041) पत्रों का यह विशाल संग्रह एक ऐसे दस्तावेज़ के रूप में सामने आया है जिसमें 1965 से अब तक की दीर्घावधि के पत्र शामिल हैं। अब संपादक से ही जानें इन पत्रों का नेपथ्य, ‘प्राप्त पत्रों की संख्या बारह-तेरह सौ के लगभग थी, मगर नितांत औपचारिक पत्रों को छांट देना उचित लगा। यहां शामिल सभी पत्र चाहे उनमें से कुछ दो-तीन पंक्तियों के ही रहे हों, मेरी नज़र में कुछ न कुछ महत्व जरूर रखते है। ऐसा पत्र किसी मूर्धन्य साहित्यकार का हो सकता है, सम्पादक का हो सकता है, किसी वरिष्ठ आलोचक का हो सकता है या मेरे किसी अनाम पाठक का भी, जिसमें उन्होंने मेरे सृजन-कर्म पर कोई मत व्यक्त किया हो, परामर्श दिया हो या सराहा हो। इनसे गुजरते हुए आपको मेरे बेचैन और भावुकता से भरे, मगर जीवन के हर तरह के युद्ध में सतत संघर्षरत, मन की जानकारी होगी और देश भर के मूर्धन्य वरिष्ठ और युवा साहित्यकारों के साथ मेरे पाठक-वर्ग के साथ होते सतत संवाद का जायजा भी मिलेगा, जो रोमांचित करेगा तो शायद किन्हीं स्तरों पर प्रेरक भी सिद्ध हो।’
उद्‌भ्रांत के इस विशाल संग्रह में हर पीढ़ी का लेखक मौजूद है। 30 मार्च, 1975 का सतीश जमाली का यह पत्र काफी मानीखेज है, ‘तुम्हारी दो कहानियां पिछले दो साल में यहां से लौटी थीं, ये हैं— ‘चक्रव्यूह’—यह यहां से 29.2.73 को लौटी थी। ‘चीरफाड़’—यह यहां से 14.8.73 को वापस भेजी गई थी। उस फोटोग्राफर ने वाकई शरारत की है। यदि 5-6 दिन तक अब भी तुम्हें कापी न पहुंचे तो मुझे सूचित करना, तब मैं उससे कापी लेकर खुद तुम्हें भेज दूंगा। आशा है सानंद हो।’
केदारनाथ अग्रवाल का यह पत्र हिन्दी के एक मूर्धन्य कवि के देशकाल और उनकी बढ़ती उम्र के प्रकोप का जैसे आईना बन कर सामने आया है। यह 26 अक्तूबर, 1988 का पत्र काबिलेगौर है, ‘दिनांक 22/10 का पोस्टकार्ड मिला। तुम मुझे देख गये हो। तब जैसा था उससे कम अच्छा हूं। अभी दो दिन हुए मेरा दिमाग गड़बड़ा गया था, गर्दन कांपने लगी थी, कुछ भी कर नहीं पाता था। आंखें भी धुंधला गई थीं। अब कुछ साधारण हुआ हूं, तब उत्तर लिख रहा हूं। मैं इस स्थिति में नहीं हूं, न आगे भी हो पाऊंगा कि पढ़-लिख सकूं और सोच-विचार कर सकने की बात तो कोसों दूर है।
मुझे तो याद नहीं आता कि (कानपुर से) कोई युवा कवि (कमल किशोर श्रमिक से) मुझसे मिले थे। स्मृति साथ नहीं देती।’
उद‍्भ्रांत के कवि-मूल्यांकन पर अधिकारी विद्वानों द्वारा लिखित और संपादित दो दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखित और संपादित होकर प्रकाशित हो चुकी हैं।

Advertisement