खुद की सेहत का ख्याल भी रखें डॉक्टर
दीपिका अरोड़ा
अच्छे स्वास्थ्य की बात करें तो शारीरिक व बौद्धिक पुष्टता होने के साथ मानसिक रूप से सशक्त होना भी अनिवार्य है। भागदौड़ भरी ज़िंदगी में निरंतर उपजता तनाव वैश्विक स्तर पर आज एक प्रमुख चुनौती बन चुका है। इसके चलते प्रतिवर्ष सात लाख से अधिक लोग जान गंवा बैठते हैं। लोगों को स्वस्थ बनाने की ज़िम्मेदारी निभाने वाला चिकित्सा क्षेत्र तो इस संदर्भ में दो क़दम आगे ही पाया गया।
डॉक्टर्स में ज़ोख़िम ज्यादा
वियना विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा 1960 से 2024 के बीच का डेटा लेकर 20 देशों पर किए गए 39 अध्ययनों के व्यापक विश्लेषण ख़ुलासा करते हैं कि महिला डॉक्टर्स में खुद के जीवन को आघात पहुंचाने का ज़ोख़िम सामान्य लोगों की तुलना में 76 प्रतिशत अधिक है, जबकि पुरुष डॉक्टरों में यह अन्य पेशों की तुलना में 40 प्रतिशत अधिक रहा। अध्ययन में सामने आया कि चिकित्सा क्षेत्र में शामिल पुरुष-महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष रूप से भारी दबाव रहता है, जो उन्हें आत्मघाती कदम उठाने की ओर धकेलने का सबब बन सकता है।
मेडिकल छात्र गहरे तनाव में
विगत कुछ वर्षों से खुद के ही घात के सर्वाधिक प्रकरण भारतवर्ष में देखने को आए। यहां प्रतिवर्ष डेढ़ लाख लोगों की मृत्यु में कारण उनके द्वारा आत्मघाती मार्ग अपनाना था। 2022 में भारतीय मनोचिकित्सा पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन देश में डॉक्टर्स के बीच आत्महत्या की दर सामान्य आबादी की तुलना में अढ़ाई गुणा अधिक होने की बात कहता है। इसके अनुसार, देश में प्रतिवर्ष लगभग 350 डॉक्टर आत्मघाती कदम उठा रहे हैं। देश का हर दूसरा डॉक्टर गहरे तनाव का सामना कर रहा है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक़, 2016 में 9,478 छात्रों ने आत्महत्या की। यह संख्या 2021 में बढ़कर 13,089 हो गई, इस वर्ष प्रतिदिन 35 छात्रों ने ख़ुदकुशी की। आत्महत्या के सर्वाधिक मामले मेडिकल क्षेत्र से संबद्ध रहे। गत वर्ष 119 प्रकरण संज्ञान में आए, जोकि अब तक के अधिकतम मामले हैं।
थकान का असर निजी जीवन तक
डॉक्टर्स के बीच तनाव व थकान की गंभीर समस्या को लेकर आईएमए द्वारा 2023 में किया गया सर्वेक्षण 82 प्रतिशत चिकित्सकों में बहुत अधिक थकान महसूस करने का तथ्य उजागर करते हुए बताता है कि 40 फ़ीसदी डॉक्टर्स का तनाव उनके व्यक्तिगत जीवन को भी कई मायनों में प्रभावित कर रहा है। मेडिकल छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण पर राष्ट्रीय कार्यबल की रिपोर्ट बताती है कि विगत 12 महीनों में 16.2 प्रतिशत एमबीबीएस छात्रों ने मन में स्वयं को हताहत करने या आत्महत्या करने संबंधी विचार आने की बात स्वीकारी। बता दें कि एम.डी./एम.एस. छात्रों के मामले में यह 31 फ़ीसदी दर्ज़ की गई।
पेशेवर चुनौतियां व लंबी कार्य अवधि
इस अनवरत बढ़ते मानसिक दवाब में प्रमुख कारण हैं पेशेवर चुनौतियां व लंबी कार्य अवधि जो तन-मन के लिए अपेक्षित विश्रान्ति का अवसर ही नहीं देतीं। साल 2021 के जर्नल ऑफ फैमिली मेडिसिन एंड प्राइमरी केयर के तहत, भारत में 70 प्रतिशत डॉक्टर हर सप्ताह 80 घंटे से अधिक कार्य करते हैं जबकि 35 प्रतिशत डॉक्टर्स के मामले में यह अवधि 100 घंटे से भी अधिक है। दुर्व्यवहार का भय भी तनाव में एक बड़ा कारण है। साल 2019-23 के मध्य ड्रॉपआउट दर तेज़ी से बढ़ने में निस्संदेह पेशेवर तनाव अहम कारण है। एनसीआरबी आंकड़ों के अनुसार, इस दौरान 32,186 छात्रों ने पढ़ाई छोड़ी।
भावनात्मक मजबूती की सीख
शोधकर्ताओं के कथनानुसार, आत्महत्याएं रोकने के लिए मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। इसकी शुरुआत बचपन से ही हो जानी चाहिए। अधिकतर अभिभावक बच्चों में आईक्यू बढ़ाने पर ज़ोर देते हैं किंतु ईक्यू यानी इमोशनल इंटेलीजेंस सुधारने के बारे कम ही सोचते हैं। भारत में लगभग 60 प्रतिशत किशोर भावनात्मक स्तर पर कम विकसित पाए गए। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय विद्यालयों में मात्र 20 प्रतिशत बच्चों को ही भावनात्मक स्तर पर शिक्षा ग्रहण करने का अवसर मिल पाता है।
काम के साथ जीवन का संतुलन
हाल ही में साल 2017 के नीट टॉपर द्वारा उठाया आत्मघाती क़दम हमें इस विषय में गंभीरतापूर्वक सोचने पर विवश करता है। शोधकर्ताओं का मानना है कि डॉक्टरों की मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक मजबूत समर्थन प्रणाली बनाई जानी चाहिए, जिससे उन्हें पेशेवर तथा व्यक्तिगत जीवन के मध्य सामंजस्य बनाने में मदद मिल सके। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) कार्यबल के एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में शामिल रेजीडेंट डॉक्टरों को प्रति सप्ताह 74 घंटे से अधिक काम न करने, सप्ताह में एक दिन अवकाश लेने व प्रतिदिन 7-8 घंटे की नींद लेने की सलाह दी गई।
आत्महत्या गंभीर अपराध माना गया है किंतु वास्तव में यह एक जटिल सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दा है, जो भविष्य की नींव सुदृढ़ बनाने व चुनौतियों का सामना करने हेतु माइंडफुलनेस प्रशिक्षण की आवश्यकता पर बल देता है। अभिभावकों का अति महत्वाकांक्षी होना बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए अहितकर साबित हो सकता है। व्यवसाय कोई भी हो, हर हाल में सहज बने रहना ही ध्येय की ओर ले जाता है।