विभिन्न कलाओं में जगमगाती दिवाली
धीरज बसाक
रोशनी का पर्व दिवाली न सिर्फ पारंपरिक कला व सौंदर्य की दृष्टि से मनभावन है बल्कि इसका सदियों पहले से ही भारतीय कलाओं में जबर्दस्त प्रभाव दिखता है। सच बात तो यह है कि कला के हर क्षेत्र ने दिवाली को अपनी तरह से अभिव्यक्ति का माध्यम माना है और अपनी अपनी तरह से इसके सौंदर्य को अभिव्यक्त किया है। मसलन भारतीय चित्रकला में दीपावली के पर्व को सौंदर्य, रचनात्मकता और धार्मिकता को एक साथ पिरोकर अभिव्यक्ति की है। कुछ ऐसा ही प्रभाव मूर्तिकला और लोककलाओं में भी देखने को मिलता है। संगीत व नाट्य-कला की अभिव्यक्तियों में भी दिवाली का प्रभाव जगमगाता है।
चित्रकला में दिवाली चित्रण
भारतीय चित्रकला में दीपावली का बहुत गहरा प्रभाव है। राजस्थानी मिनिएचर पेंटिंग, मधुबनी कला और कालीघाट पेंटिंग इस दीप पर्व के सौंदर्य में रची-बसी हैं। इन सभी चित्रकलाओं में दीपों को खूबसूरती से चित्रित किया गया है, जिसमें पारंपरिक लोकाचार और धार्मिक भावनाएं संवेदनशीलता के साथ उभारी गई हैं। इस पर्व को खुशी, उल्लास, विजय, शांति और ज्ञान के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया है। राजस्थानी मिनिएचर पेंटिंग में दीपावली के दृश्यों की भरमार है, जो चटख रंगों से ओतप्रोत और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से जटिल होते हैं। दीपों से जगमगाते घर, आंगन में झिलमिलाती दीपमालिका, लक्ष्मी पूजन, विराट आतिशबाजी और एक-दूसरे के साथ दीप पर्व का उल्लास बांटते लोग, इन कला के प्रमुख चित्र हैं।
मधुबनी चित्रकला में भी दीपों और देवी लक्ष्मी की आकृतियों को जोरदार तरीके से उकेरा गया है। यहां देवी-देवताओं की पूजा, घरों के प्रवेशद्वार पर रंगोली और लक्ष्मी पूजन तथा दीपों का सुंदर चित्रण देखने को मिलता है। ये सभी प्रतीक चित्रण दीपावली को समर्पित हैं। कालीघाट पेंटिंग में भी देवी लक्ष्मी और काली की पूजा को केंद्रित किया गया है। इस कला का सर्वाधिक चित्रण दीपावली के आसपास होता है, ताकि लोग महानिशा की पूजा के लिए ये पेंटिंग्स खरीद सकें।
लोककला में दिवाली
चित्रकला की तरह ही भारत के विभिन्न क्षेत्रों की लोककलाओं में भी दीपावली का भरपूर प्रभाव देखने को मिलता है। दिवाली के मौके पर घरों के प्रवेशद्वार पर सजी रंग-बिरंगी रंगोलियों में दीपावली का पर्व इंद्रधनुषी रोशनियों में झिलमिलाता है। रंगोली को भारतीय संस्कृति में शुद्धता, समृद्धि और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। इसलिए दीपावली के मौके पर घरों के आंगन, प्रवेशद्वार और बैठकों में अंदर-बाहर जो रंगोलियां बनायी जाती हैं, वे दीपोत्सव की ही छटा बिखेरती हैं। रंगोलियां विभिन्न प्रकार के रंगों और प्राकृतिक चीज़ों मसलन- फूल, पत्तियां, चावल, हल्दी और ऐसी कई दूसरी चीज़ों के जरिये बनायी जाती हैं। दक्षिण भारत में भी लोककलाओं के रूप में रंगोली को कोलम कहा जाता है।
मूर्तिकला में जगमगाती दिवाली
दीपावली का प्रभाव मूर्तिकला में भी खूब देखने को मिलता है। यह अकारण नहीं है कि दिवाली के करीब एक महीने पहले से ही बाज़ार में देवी लक्ष्मी और गणेश की तरह-तरह की मूर्तियों का अम्बार लग जाता है। घरों से लेकर मंदिरों तक लोग अक्सर दिवाली के मौके पर पूजा और घर की सजावट के लिए मूर्तियां खरीदते हैं तथा इस मौके पर बिकने वाली मूर्तियों में दिवाली की अदृश्य उपस्थिति को रोम-रोम से महसूस किया जा सकता है। टेराकोटा मूर्तियां जो आमतौर पर सबसे ज्यादा पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में बनती हैं। टेराकोटा मूर्तियों में सबसे ज्यादा देवी लक्ष्मी और गणेश की मूर्तियां बनती हैं, जो कि दिवाली का प्रतीक हैं।
नाट्य-संगीत क्षेत्र में दिवाली
अगर नाट्य और संगीत के क्षेत्र में दिवाली के प्रभाव का आंकलन करें तो यहां पर भी दीपावली को बहुत महत्वपूर्ण पल के रूप में लिया गया है। नाट्य और संगीत पर दीपावली का सांस्कृतिक प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। दीपावली त्योहार के मौके पर अनेक तरह के लोक उत्सव होते हैं, जिनमें सबसे ज्यादा नृत्य और संगीत के कार्यक्रम ही होते हैं, जिनमें दीप जलाने, संगीत की धुन में नाचने, गाने आदि की पृष्ठभूमि में दीपावली का प्रभाव झिलमिलाता रहता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में दीपावली के अवसर पर विभिन्न रागों के संगीत कार्यक्रम आयोजित होते हैं। शास्त्रीय कला में भी दीपक राग जैसा अद्भुत राग है, जो दीपावली को ही समर्पित है। लोकनृत्यों के मामले में गुजरात में गरबा और राजस्थान में घूमर जैसे नृत्यों में भी दीपावली की थीम रची-बसी होती है। आधुनिक कलाओं में भी दीपावली का प्रभाव फोटोग्राफी और इंस्टॉलेशन आर्ट में अच्छी तरह से दिखता है। इ.रि.सें.