असंगत अमीरी
ह खबर विचलित करने वाली है कि देश में मौजूदा आर्थिक असमानता ब्रिटिश काल से भी अधिक है। जो संकेत देती है कि हमारा लोकतंत्र विगत में समतामूलक आय सृजन के अवसरों का पोषक नहीं रहा है। अंतरराष्ट्रीय संस्था थामस पिकेटी व तीन अर्थशास्त्रियों द्वारा तैयार रिपोर्ट चौंकाने वाले निष्कर्ष पेश करती है कि भारत में वर्ष 2022-23 में देश के शीर्ष एक फीसदी अमीरों की देश की संपत्ति में 40 फीसदी हिस्सेदारी है। वहीं उनकी आय में हिस्सेदारी 22.6 फीसदी है। देश में अरबपतियों के उदय का खुलासा करने वाली रिपोर्ट निश्चिय ही संपन्न तबके के वर्चस्व को दर्शाती है। यानी हमारी धन केंद्रित आर्थिकी के चलते देश में आर्थिक असमानता की ओर ही इशारा करती है। दरअसल, देश में आर्थिक असमानता में 1980 के दशक में गिरावट देखी गई थी। लेकिन वैश्वीकरण व उदारीकरण के दौर में उदार आर्थिक नीतियों ने आय में असमानता को ही बढ़ावा दिया है। निश्चित रूप से यह स्थिति हमारी आयकर प्रणाली की विसंगतियों को भी दर्शाती है। लंबे समय से मांग की जाती रही है कि देश के कर ढांचे में सुधार किया जाए। संपन्न वर्ग की आय व संपत्ति पर यह कर लगाया जाए। इससे होने वाली आय का निवेश कालांतर स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण की स्थिति सुधारने के लिये किया जाए। लेकिन इस सुझाव की तरफ गंभीरता से विचार नहीं किया गया। जिसके चलते संसाधनों के निर्मम दोहन का सिलसिला यूं ही चलता रहा। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि वित्तीय वर्ष 2023 में देश के सबसे 167 अमीर परिवारों की कुल संपदा पर दो फीसदी का सुपर टैक्स लगाया गया होता तो इससे राष्ट्र की कुल आय में 0.5 फीसदी की वृद्धि होती। निश्चित तौर पर इस प्रयास से देश में लगातार चौड़ी होती असमानता की खाई को पाटने में मदद मिलती। विडंबना यह है कि देश में जारी आर्थिक असमानता के संकट को सत्ताधीशों ने गंभीरता से नहीं लिया।
निश्चित रूप से किसी भी देश में लगातार गहरी होती असमानता की खाई कालांतर सामाजिक अशांति की वाहक बन सकती है। जिसका प्रभाव देश की कानून व्यवस्था पर भी प्रतिकूल रूप से पड़ सकता है। आज दुनिया के कई देशों में जारी असंतोष व प्रतिरोध के मूल में आर्थिक असमानता के बीज ही निहित होते हैं। जैसे ही आर्थिक असमानता सीमा असहनीय स्थिति तक पहुंचती है, प्रतिरोध की प्रतिक्रिया सामने आती है। निश्चित रूप से किसी देश में सामाजिक संतुलन के लिये श्रम का सम्मान होना भी बेहद जरूरी है। मेहनतकश वर्ग की आय का लगातार सिकुड़ना किसी भी देश के लिये अच्छा संकेत नहीं होता है। यह किसी भी लोकतंत्र के लिये अच्छी स्थिति नहीं है कि देश का एक फीसदी वर्ग विलासिता का जीवन जी रहा हो और वहीं दूसरी ओर देश का एक बड़ा तबका रोटी-कपड़ा-मकान के लिये संघर्ष कर रहा हो। यह आर्थिक असंतुलन किसी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की सार्थकता पर भी चर्चा की मांग करता है। हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट की पहल पर राजनीतिक दलों को धनाढ्य वर्ग द्वारा हजारों करोड़ का चंदा दिया जाना इस आर्थिक असमानता का स्याह पक्ष ही है। राजनीतिक पार्टियों के लिये चुनावी चंदे के नाम पर मोटी रकम निवेश करने वाला धनाढ्य तबका कालांतर लोकतंत्र में अपनी विशिष्ट हिस्सेदारी भी चाहता है। जो शासन की रीति-नीतियों को प्रभावित करके निहित स्वार्थों का पोषण ही करता है। निश्चित तौर पर यह सब लोकतंत्र की विसंगतियों को ही दर्शाता है। आम आदमी के दिमाग में यह सवाल आ सकता है कि जिस धन को जुटाने में उसकी सारी उम्र लग जाती है, उसे कुछ लोग हर मिनट में जुटा लेते हैं। निश्चय ही उसके मन में व्यवस्था को लेकर शंकाएं जन्म लेती हैं। जो निश्चित तौर पर सामाजिक कुंठा का ही वाहक है। जिसकी परिणति कालांतर सामाजिक आक्रोश के रूप में हो सकती है। जिसे भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश के हित में नहीं माना जा सकता। निस्संदेह, यह एक गंभीर समस्या है और देश के सत्ताधीशों को गंभीरता से इसका समाधान करना होगा। यह हमारे लोकतंत्र की सार्थकता का मानक भी होगा कि देश में आर्थिक विषमता की खाई को किस हद तक पाटा जा सकता है।