टूटते भरोसे से बिखराव
जेन्नी शबनम
कहीं पढ़ा था, ‘जैसे ही हम भरोसा करना छोड़ देते हैं, वैसे ही हम ख़ुद को भीतर से बंद कर लेते हैं और अकेलेपन की कंदरा में खो जाते हैं। हम प्यार कम करते हैं और डरते ज्यादा हैं।’ सच है कि इंसानी रिश्तों का मनोविज्ञान बिल्कुल बदल चुका है। आज हर रिश्ते असंवेदी हो चुके हैं, हम किसी पर भी यकीन नहीं करते। ऐसा नहीं है कि भरोसा टूटने की कोई एक वज़ह है। आज हर गलत परिणति को विदेशी संस्कृति के प्रभाव का परिणाम कह देने का चलन या यूं कहें कि फैशन बन चुका है। व्यक्ति, समाज और देश सभी एक दूसरे से अंतर्संबंधित हैं। अगर समाज ऐसा बन चुका है जहां हम भरोसा करना छोड़ चुके हैं तो दोषी कौन है?
कोई ख़ास समाज या सरकार या समूह दोषी नहीं है, बल्कि समस्त मनुष्य बिरादरी जिम्मेवार है। महत्वाकांक्षाएं इतनी बढ़ चुकी हैं कि लोग रिश्तों को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर ऊपर चढ़ जाना चाहते हैं, और जब कहीं पहुंच जाएं फिर उन्हीं रिश्तों को रौंद डालते हैं। किसी पर कोई कैसे यकीन करे? रिश्तों की अहमियत खो चुकी है, चाहे वो बच्चों से हो या माता-पिता से या सगे-सम्बन्धी से या दोस्त या फिर पड़ोसी से हो। पति पत्नी में तो आत्मिक रिश्ता कभी दिखता ही नहीं, मन में कड़वाहट भरी होती है लेकिन ऊपर से प्रेम में कमी नहीं होती। वो पुरुष जो दहेज़ लेकर सामान की तरह देख-परखकर विवाह करेगा उसे कैसे कोई स्त्री प्रेम कर सकती है? दहेज़ के लिए या फिर सिर्फ बेटी जन्म देने के कारण विवाह के कई साल बाद भी स्त्री को मार दिया जाता है। जन्मजात कन्या से लेकर मृत्यु के द्वार पर खड़ी औरत असुरक्षित होती है। कब वो शारीरिक शोषण का शिकार हो जाए, नहीं मालूम। और ये भरोसा स्त्री का उसके अपने ही घर में अपने ही नज़दीकी रिश्तों द्वारा तोड़ा जाता है।
प्रेमी-प्रेमिकाओं के तार भी मन से और आत्मा की गहराइयों से जुड़े नहीं होते, वैसे में प्रेम महज़ प्रदर्शन का ज़रिया बन जाता है। अगर कोई प्रेमी विवाह कर भी ले तो मानो कि बड़ा अहसान कर दिया हो, परन्तु फिर भी दहेज़ चाहिए होता है। मन में डर बैठ जाता कहीं एक और धोखा न मिल जाए या कोई और भरोसा न तोड़ जाए। और ये डर न तो सहज जीवन जीने देता और न खुलकर जीने देता। प्रेम, दोस्ती, रिश्ते सबको संदेह की नज़र से देखते हैं। और खुद में इतने सिमट जाते कि खुद पर यकीन नहीं रह जाता कि वो क्या करे कि धोखा न मिले, और शायद भरोसा खुद पर से भी उठ जाता है। आत्मविश्वास के साथ ही इंसानी रिश्तों से भरोसा ख़त्म हो जाता है।
साभार : साझा संसार डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम