चरचा हुक्के पै
नेताओं में बेचैनी
दो महीने से भी अधिक की भागदौड़ और चिलचिलाती धूप में चुनाव प्रचार के बाद शनिवार को सभी नेताओं का राजनीतिक भाग्य ईवीएम में बंद हो गया। उम्मीद से कम मतदान ने नेताओं की बेचैनी बढ़ा दी है। सभी के समीकरण लड़खड़ा गए हैं। किसी का कहना है कि कम वोटिंग सरकार के लिए फायदेमंद है तो कोई दलील दे रहा है कि इसका फायदा विपक्ष को होगा। चुनाव परिणाम 4 जून को आएंगे, लेकिन इससे पहले नेताओं का बीपी अप-डाउन होता रहेगा। अब नेताओं द्वारा हलकावार मतदान प्रतिशत का आकलन किया जा रहा है। जातियों के हिसाब से भी गुणा-भाग किया जा रहा है कि किस वर्ग से कितनी वाेट मिलने की उम्मीद है। अब नतीजों तक नेताओं की बेचैनी बढ़ी रहेगी और टेलीफोन कर करके इधर-उधर से रिपोर्ट लेने का सिलसिला भी जारी रहेगा।
दिग्गजों के छुड़ाए पसीने
इस बार का लोकसभा चुनाव पूरी तरह से अलग नजर आया। 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के लिए राह कुछ आसान थी, इस बार उसकी डगर चुनौतियां भरी रही। इसके पीछे दस वर्षों की एंटी-इन्कमबेंसी हो या फिर कोई और कारण, भाजपाइयों के भी मतदाताओं ने पसीने छुड़ाए रखे। नेताओं को दर-दर भटकने को मजबूर कर दिया गया। इस बार वर्करों व रूठे लोगों को मनाने में भी कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। ऐसा नहीं है कि यह स्थिति अकेले भाजपा के सामने थी। प्रमुख विपक्षी दल – कांग्रेस के नेताओं को भी कम मेहनत नहीं करनी पड़ी। कांग्रेसियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती उन नेताओं को मनाने की थी, जिनके टिकट कट गए। मनाना इसलिए भी जरूरी था कि उन्हें कहीं न कहीं भितरघात का खतरा भी दिख रहा था।
नतीजों के बाद आरोप-प्रत्यारोप
लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद नेताओं द्वारा एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी शुरू होगा। संभव है, इस तरह की शिकायतें सबसे अधिक कांग्रेस में देखने को मिलें। सत्तारूढ़ भाजपा में भी सिरसा और रोहतक लोकसभ सीट पर इस तरह की खबरें आ सकती हैं। ऐसा इसलिए भी होगा क्योंकि लोकसभा चुनाव लड़ रहे नेता मौजूदा विधायकों के अलावा विधानसभा चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाले नेताओं पर भी काफी हद तक निर्भर थे। हलकों में जीत की जिम्मेदारी मौजूदा व पूर्व विधायकों के अलावा वरिष्ठ नेताओं की भी थी। जिन भी हलकों में प्रत्याशियों की हार होगी, उन हलकों की समीक्षा भी स्वाभाविक है। सो, ऐसे में एक-दूसरे पर दोष मढ़ना भी लाजिमी है।
कांग्रेस को बिन मांगे मिले वोट
यह अपनी तरह का पहला चुनाव था, जिसमें कांग्रेस को बिन मांगे भी वोट मिले। बेशक, सांघी वाले ताऊ ने भी कम मेहनत नहीं की लेकिन फिर भी एंटी-इन्कमबेंसी ने माहौल ऐसा बना दिया था कि लोकसभा में रसातल पर जाती दिख रही कांग्रेस मुकाबले में आ डटी। ऐसा कहा जा सकता है कि लम्बे अरसे के बाद पहली बार कांग्रेस को बम्पर वोट मिले हैं। प्रदेश में चार जातियों की लामबंदी ने कांग्रेस को मजबूती का आधार दिया। इन लोगों ने न केवल भाजपा व जजपा प्रत्याशियों का विरोध किया बल्कि पोलिंग बूथों पर भी कमान संभालने का काम किया।
फ्यूज उड़ने से बढ़ी परेशानी
इसमें कोई दो-राय नहीं है कि सरकारी नौकरियों का ‘मिशन मैरिट’ और ‘मोदी की गारंटी’ का असर इस बार के लोकसभा चुनावों में दिखा। लेकिन एक सच यह भी है कि सबसे बड़े कैडर होने का दम भरने वाली भाजपा के चुनाव प्रचार में यही ‘करंट’ देखने को नहीं मिला। इसकी सबसे बड़ी वजह भाजपा कैडर का ‘फ्यूज’ उड़ा होना बड़ा कारण माना जा रहा है। भाजपा के एक दर्जन से अधिक नेताओं में जहां राजनीतिक हाशिये पर जाने का रोष था। वहीं निचला कैडर इस बात को लेकर नाराज नजर आया कि उनकी सुनवाई नहीं होती। आमतौर पर भाजपा का कैडर चुनावों में सबसे अधिक एक्टिव रहता है। वर्करों का इस बार सक्रिय नहीं होना भी भाजपा के लिए बड़ी टेंशन का कारण बना रहा। ऐसे में लोकसभा की दस सीटों पर चुनावी नतीजे चाहे कुछ भी रहें लेकिन भाजपा को अब वर्करों का विशेष ‘ध्यान’ रखना होगा।
‘घर’ की पार्टियां संकट में
लोकसभा चुनाव में मुकाबला भाजपा और इंडिया गठबंधन में सिमट जाने के चलते चौटाला परिवार की दोनों पार्टियां – इनेलो व जजपा के लिए बड़ी परेशानी खड़ी हो गई है। जजपा प्रत्याशियों को जहां किसानों के विरोध का सामना करना पड़ा, वहीं अभय चौटाला भी कुरुक्षेत्र के ‘महाभारत’ में विरोधियों द्वारा लगाए गए ‘वोट काटू’ के प्रचार को रोकने की जद्दोजहद में लगे रहे। इस बार चौटाला परिवारों की दोनों ही पार्टियों का खाता खुलने के आसार नहीं हैं। साथ-साथ दोनों ही पार्टियों के लिए किसी एक सीट पर जमानत बचाने की भी चुनौती नजर आ रही है।
राजा साहब घूमे गली-गली
2004 से लगातार लोकसभा चुनाव जीतते आ रहे अहीरवाल वाले ‘राजा’ साहब को भी इस बार गली-गली प्रचार करना पड़ा। ‘बिगड़े’ माहौल में उन्हें हर वर्ग तक पहुंचना पड़ा। गुरुग्राम की ऐसी बस्तियों में भी जाकर उन्होंने प्रचार किया, जहां पहले वे कभी नहीं गए थे। राज बब्बर को कांग्रेस की टिकट पक्की होने से पहले राजा साहब बेफिक्री से चुनाव प्रचार कर रहे थे। ‘राजा’ साहब को लगता था कि इस बार भी दो-चार लाख वोट से आसानी से जीत जाएंगे और भाजपा टिकट पर गुरुग्राम से जीत की हैट्रिक लगाएंगे। उनकी तो सीट ही एेसी है, जिस पर किसान आंदोलन का असर नहीं था। लेकिन फिर भी राज बब्बर के स्टारडम ने राजा साहब के समीकरणों को गड़बड़ा कर रख दिया।
मराठा ने पहुंचाया फायदा
करनाल लोकसभा सीट पर अपने ‘काका’ को सबसे बड़ी राहत पहुंचाने का काम इनेलो समर्थन से चुनाव लड़ रहे एनसीपी प्रत्याशी मराठा वीरेंद्र वर्मा ने किया। कांग्रेस के ‘लाइटवेट’ माने जा रहे दिव्यांशु बुद्धिराजा ने करनाल सीट पर काका का मुकाबला किया। इस पार्लियामेंट के कुछ वर्गों के मतदाताओं की गोलबंदी ने भाजपा के सामने 2019 के नतीजों को दोहराने की चुनौती पैदा की हुई थी। 2019 में करनाल से भाजपा ने 6 लाख 52 हजार मतों के रिकार्ड अंतर से जीत हासिल की थी। इस बार यह मार्जन दूर की कौड़ी है। अपने एक बयान की वजह से मराठा अनजाने में ही काका के मददगार बन बैठे। ऐसा माना जा रहा है कि मराठा के ‘झांगी’ वाले बयान से काका को बड़ा फायदा पहुंचा है।
-दादाजी