डिनर सेट
‘पापा ये मेरे मायके से डिनर सेट मिला है। छह प्लेट वाला... आप, मम्मी, आयुष, मैं और भविष्य में होने वाले आपके...?’ शब्द उसके गले मे अटक गए और गाल शर्म से लाल हो चुके थे। सक्सेना जी अभी भी उसकी बात को समझ नहीं पा रहे थे। ‘पापा आप चिंता न करें चार प्लेट वाला डिनर सेट हम किसी को गिफ्ट कर देंगे। इस घर में तो छह प्लेट वाला ही डिनर सेट रहेगा।’
डॉ. रंजना जायसवाल
बेटे की शादी, घर में महीनों से तैयारी चल रही थी। दुनियाभर की लिस्ट बना ली थी कि ऐन मौके पर कुछ छूट न जाए, पर काम खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। जब देखो काम सुरसा के मुंह की तरह मुंह खोले खड़ा रहता। नई बहू का आगमन घर में खुशियां लेकर आया था।
धीरे-धीरे करके सारे मेहमान और रिश्तेदार चले गए थे। आजकल तो रिश्तेदार भी मेहमानों की तरह शादी के दिन या दो दिन पहले हाथ झुलाते आते हैं। जिम्मेदारियों के नाम पर खाया-नाचा और अपने-अपने घर, किसी से क्या उम्मीद करनी। घर समेटते-समेटते अब तो हाथ भी दुखने लगे थे। पारुल को इस घर में आये चार ही दिन तो हुए थे, नई-नवेली दुल्हन से कुछ काम कहते बनता भी नहीं था। तभी सक्सेना जी ने आवाज लगाई।
‘निर्मला! काम होता रहेगा, लगे हाथ शादी में आये उपहारों को भी देख लो। कल हमें भी तो देना होगा।’
ये काम निर्मला को सबसे ज्यादा खराब लगता था। सक्सेना जी को बातों का पोस्टमार्टम करने में बड़ा मजा आता था। अरे भाई किसी से उपहार लेने के लिए थोड़ी आमंत्रित करते हैं। आदमी की अपनी श्रद्धा और सोच जैसा चाहे वैसा दे। कोई रिश्तेदार या जान-पहचान वाला सस्ता उपहार दे दे तो सक्सेना जी हत्थे से उखड़ जाते।
‘ऐसे कैसे दे दिया कम से कम हमारी हैसियत तो देखनी चाहिए थी। लोग एक बार भी सोचते नहीं कि किसके घर दे रहे हैं।’
और अगर कोई अच्छा उपहार दे दे तो…?
‘इसमें कौन-सी बड़ी बात है भगवान ने दिया है तो दे रहे हैं।’
निर्मला कहती,
‘हमें भी तो उन्हें देना पड़ेगा सिर्फ लेना ही तो संभव नहीं है।’
‘हमारा उनसे क्या मुकाबला, वह चाहें तो इससे भी अच्छा दे सकते थे खैर…।’
सक्सेना जी ने अपने बेटे आयुष और बहू पारुल को आवाज लगाई।
‘आयुष! मम्मी का लाल वाला पर्स अलमारी से निकाल लाओ और वहीं बगल में गिफ्ट्स भी रखे हैं। पारुल बेटा ये डायरी और पेन पकड़ो और लिखती जाओ।’
‘जी पापा!’
‘आप भी न, हर बात की जल्दी रहती है आपको…, घर में इतने सारे काम पड़े हैं। अरे हो जाता ऐसी भी क्या जल्दी है।’
निर्मला ने बड़बड़ाते हुए कहा, रंग-बिरंगें कागजों में लिपटे उपहार कितने खूबसूरत लग रहे थे। ये उपहार भी कितनी गजब की चीज़ हैं, कुछ के लिए भावनाओं के उद्गार को दिखाने का माध्यम बनते हैं तो कुछ के लिए सिर्फ औपचारिकता…, पुष्प-गुच्छ उसे कभी समझ नहीं आते थे। कभी-कभी लगता सामान देने का मन नहीं, लिफाफा बजट से ऊपर जा रहा तो इसे ही देकर टरका दो। खुशियों की तरह इनकी जिंदगी भी आखिर कितनी होती है।
‘अरे ध्यान से उपहार खोलो, पैकिंग पेपर कितना सुंदर है। गड्ढे के नीचे दबाकर रख दूंगी सब सीधे हो जाएंगे। किसी को लेने-देने में काम आ जाएंगे।’
निर्मला ने हांक लगाई, ‘क्या मम्मी तुम भी न, यहां लाखों रुपये शादी में ख़र्च हो गए और तुम वही दस-बीस रुपये बचाने की बात करती हो।’
नई-नवेली पारुल के सामने आयुष का यूं झिड़कना निर्मला को रास नहीं आया पर क्या कहती…, हम गृहणियां इन छोटी-छोटी बचतों से ही खुश हो जाती हैं। उनकी इस खुशी का अंदाजा पुरुष नहीं लगा सकते। लाखों के गहने खरीदने में उन्हें उतनी खुशी नहीं होती जितनी उसके साथ मिलने वाली मखमली डिबिया, जूट बैग या फिर कैलेंडर के मिलने पर होती है। चार सौ रुपये की सब्जी के साथ दस रुपये की धनिया मुफ्त पाने के लिए वे दो किलोमीटर दूर सब्जी बेचने वाले के पास जाने में भी वे गुरेज नहीं करतीं। दांत साफ करने से शुरू होकर, कुकर के रबड़ साफ करने तक वे एक ही टूथब्रश का इस्तेमाल करती हैं। उनकी यह यात्रा यहां पर भी समाप्त नहीं होती। ब्रश का एक भी बाल न बचने की स्थिति में वो पेटीकोट और पायजामे में नाड़ा डालने में उसका सदुपयोग करती हैं। ये आजकल के बच्चे क्या जानेंगे कि एक औरत किस-किस तरह से जुगाड़ कर गृहस्थी को चलाती है। नीबू की आखिरी बूंद तक निचोड़ने के बाद भी उसकी आत्मा तृप्त नहीं होती और वो नीबू के मरे हुए शरीर को भी तवे और कढ़ाही साफ करने में प्रयोग में लाती हैं।
निर्मला चुप थी, नई-नवेली बहू के सामने कहती भी तो क्या…? तभी निर्मला की नजर पारुल पर पड़ी, वो न जाने कब रसोईघर से चाकू ले आई थी और सिर झुकाए अपने मेहंदी लगे हुए हाथों से सावधानी से धीरे-धीरे सेलोटेप को काट रही थी। बगल में ही उपहारों में चढ़े रंगीन कागज तह लगे हुए रखे हुए थे। पारुल की निगाह निर्मला से टकरा गई, निर्मला की आंखों में चमक आ गई। दिल में एक भरोसा जाग गया, उसकी गृहस्थी सही हाथों में जा रही है। उसे अब इस घर की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। पारुल पढ़ी-लिखी लड़की है वो अच्छे से उसकी गृहस्थी सम्भाल लेगी।
‘ये जो इतना रायता फैला रखा है पहले इसे समेटो। ऐसा है पहले ये सारे उपहार खोलकर नाम लिखवा दो, फिर लिफाफे देखना।’
निर्मला ने आयुष से कहा, किसी में बेडशीट, किसी में गुलदस्ता, किसी में पेंटिंग तो किसी में घड़ी थी।
‘जरा संभालकर! शायद कुछ कांच का है। कहीं टूट न जाये।’
निर्मला के अनुभवी कानों ने आवाज से ही अंदाजा लगा लिया।
‘मां! देखो कितना सुंदर डिनर सेट है।’
आयुष ने हुलस कर कहा, निर्मला ने डिनर सेट की प्लेट पर प्यार से हाथ फेरा।
‘निर्मला जरा इधर तो दिखाओ, किसने दिया है भाई बड़ा सुंदर है।’
‘मथुरा वाली दीदी ने दिया है, कितना सुंदर है न?’
‘हम्म! पर इसमे तो सिर्फ चार प्लेट और चार कटोरियां हैं। ये कौन-सा फैशन है। आजकल की कंपनियों के चोंचले समझ ही नहीं आते।’
‘समझना क्या है ठीक तो है। मां-बाप और बच्चे।’
‘और हम?’
सक्सेना जी ने दबे स्वर में कहा, सक्सेना जी का चेहरा उतर गया था, निर्मला कुछ-कुछ समझ रही थी। आखिर तीस साल साथ बिताए थे। निर्मला ने हमेशा की तरह बात को संभाला,
‘वो भी तो वही कह रहा है, मां-बाप और बच्चे।’
सक्सेना जी ने दबे स्वर में बड़बड़ाते हुए कहा-‘कौन से मां-बाप और कौन से बच्चे…, वर्तमान वाले या फिर भविष्य वाले?’
सक्सेना जी अनमन्य से हो गए और सब कुछ छोड़ बैठक में आकर बैठ गए। मन-मस्तिष्क में इतना कुछ चल रहा था जिसकी तपिश उनके चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी। कितना लंबा-चौड़ा परिवार था उनका,… सब मिल-जुलकर रहते थे पर वक्त की ऐसी आंधी चली सब बिखर गए। काम की तलाश में सब अलग-अलग आसमानों में उड़ गए। अब तो बस भाई-भतीजों से तीज़-त्योहार और शादी-ब्याह में ही मुलाकात हो पाती थी। भाइयों का हाल भी बहुत अच्छा नहीं था। बहू के आने के बाद परिस्थितियां बदल गई थीं। उनका क्या होगा यह सोच-सोच कर वह परेशान होते रहते थे।
इस समय समाज में जो हवा चल रही थी उसकी वजह से इस तरह के विचार आना स्वाभाविक ही था। सक्सेना जी के मन में एक असुरक्षा की भावना घर कर गई थी। सक्सेना जी का चिड़चिड़ापन स्वाभाविक था।
‘जो होना होगा, होगा ही… उसमें डरने की क्या बात है। कोई हमारे साथ नया तो नहीं होगा।’
कहने को तो निर्मला ने कह दिया था पर कहीं न कहीं एक डर उसके मन-मस्तिष्क में भी पल रहा था। अपनी कोख से पैदा की हुई संतान को दूसरे घर की लड़की के साथ बांट पाना इतना आसान नहीं था पर निर्मला जी सक्सेना जी को खुश करने के लिए हर बात को हवा में उड़ा देती पर उन्होंने अपना दर्द कभी दिखाया नहीं था।
कौन कहता है एक नई नवेली बहू को ही अपने ससुराल में सामंजस्य बैठाना पड़ता है पर लोग यह भूल जाते हैं कि ससुराल वालों को भी नई बहू के साथ सामंजस्य बैठाना पड़ता है। अपनी घर की चाबियों से लेकर घर के दुख-दर्द भी साझे करने होते हैं। एक अजनबी लड़की को सिर्फ आप अपने घर की चाबियां नहीं, अपने घर की जिम्मेदारियां और विश्वास भी सौंप रहे होते हैं। वह आपके हर चीज़ की राजदार होती है।
शायद उनके अन्तिम वाक्य को नई नवेली पारुल ने सुन लिया था। सक्सेना जी आंखें मूंदे सोफे पर पड़े हुए था। उस चार प्लेट वाले डिनर सेट को देख उनका मूड खराब हो चुका था। तभी पारुल अपने हाथ में एक बड़ा-सा डिब्बा लेकर कमरे में घुसी।
‘क्या हुआ बेटा, ये तुम्हारे हाथों में क्या है?’- सक्सेना जी ने पूछा
‘पापा ये मेरे मायके से डिनर सेट मिला है। छह प्लेट वाला…... आप, मम्मी, आयुष, मैं और भविष्य में होने वाले आपके...?’
शब्द उसके गले में अटक गए और गाल शर्म से लाल हो चुके थे। सक्सेना जी अभी भी उसकी बात को समझ नहीं पा रहे थे।
‘पापा आप चिंता न करें, चार प्लेट वाला डिनर सेट हम किसी को गिफ्ट कर देंगे। इस घर में तो छह प्लेट वाला ही डिनर सेट रहेगा।’