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ज्ञान नेत्र से उजाला फैलाती गरिमा

07:19 AM Feb 02, 2024 IST
ज्ञान नेत्र से उजाला फैलाती गरिमा
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अरुण नैथानी

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कुदरत के खेल भी निराले हैं। व्यक्ति के लिये एक रास्ता बंद करती है सौ रास्ते खोल भी देती है। लौकिक दृष्टि लेती है तो अलौकिक दृष्टि दे देती है। हरियाणा के महेंद्रगढ़ जनपद के नावदी गांव की गरिमा ने इस बात को साबित किया। जब नौ साल पहले गरिमा पैदा हुई तो दृष्टिबाधित थी। यह महसूस किया जा सकता है कि एक बेटी के दृष्टिबाधित पैदा होने पर माता-पिता किन मन:स्थितियों से गुजरते हैं। लेकिन आज उसी परिवार ही नहीं, पूरे गांव को इस बेटी पर गर्व है क्योंकि उसने परिवार-गांव को राष्ट्रीय सुर्खियों में ला दिया है। पिछले दिनों राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने उसे प्रधानमंत्री का ‘राष्ट्रीय बाल पुरस्कार’ प्रदान किया। वह भी ज्ञान का उजाला फैलाने के लिये।
दरअसल, गरिमा को यह सम्मान वंचित समाज के बच्चों को उनकी झुग्गी-झोपड़ियों में जाकर शिक्षा के लिये प्रेरित करने के लिये दिया गया। वाकई कुदरत कमाल करती है। दृष्टि से वंचित गरिमा यह कार्य महज तीन साल की उम्र से कर रही है। गरिमा को दृष्टि नहीं मिली लेकिन मानवीय अंतर्दृष्टि मिली। दो नेत्र नहीं मिले तो उसने ज्ञान का तीसरा नेत्र खोल दिया। कितनी समझ होती है तीन साल के बच्चे को। वह अपने बारे में अच्छे से नहीं सोच पाता, समाज की कहां सोच पाएगा।
उसके जीवन में यह परिवर्तन कैसे आया और कैसे गरिमा ने गरीब बच्चों को स्कूल भेजने के लिये प्रेरित करना शुरू किया? इस सवाल के जवाब में गरिमा की मां सीमा यादव कहती हैं कि एक बार जब यह तीन साल की थी, एक महिला भिखारी घर पर कुछ मांगने आई थी। उसके साथ एक छोटी बच्ची थी और वह रो रही थी। गरिमा ने मां से सवाल किया कि वह बच्ची क्यों रो रही है? वह स्कूल क्यों नहीं जाती? तब मां ने बताया कि वे गरीब हैं अत: स्कूल नहीं जा सकती। उस घटना ने संवेदनशील गरिमा को गरीब बच्चों को स्कूल जाने के लिये मदद करने व प्रेरित करने का मन बनाया। वह तब से पिता के सहयोग से झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले बच्चों को पढ़ाने व पाठ्य सामग्री देने के प्रयास में लग गई।
आज हमारे समाज में तमाम लोग छोटी-छोटी बातों में निराश होकर अवसाद में चले जाते हैं। जीवन तक खत्म कर लेते हैं। उन्हें गरिमा का हौसला व रचनात्मकता देखनी चाहिए। वह अपने जीवन का अंधेरा भूलकर ज्ञान बांटने के ऋषिकर्म में लगी है। वह एक साक्षर पाठशाला चलाती है। करीब एक हजार गरीब बच्चों को पाठ्य सामग्री आदि वितरित करके वह उनसे जुड़ चुकी है।
वैसे गरिमा की इस सफलता में उनके पिता डॉ. नरेंद्र, जो खुद एक शिक्षक हैं, की भी प्रेरणा शामिल है। उसके पिता बताते हैं कि बेटी जिस अवस्था में पैदा हुई, उसे देखकर डॉक्टरों ने कुछ न हो पाने की स्थिति में बेटी को पढ़ाने-लिखाने की बात कही। लेकिन दृष्टिबाधिता के बावजूद उसका हौसला, संवेदनशीलता और उत्साह गजब का रहा। उसने लैपटॉप सीखा और खास सॉफ्टवेयर की मदद से अपना ज्ञान बढ़ाया। वह चौथी क्लास में पढ़ती है। लैपटॉप पर हिंदी-अंग्रेजी में काम करती है और मैडम को अपना काम मेल से भेज देती है। उत्साहवर्धक बात यह है कि वह सामान्य बच्चों के स्कूल जाती है। परिजन उसे स्कूल के गेट पर छोड़ आते हैं और वह खुद ही दूसरी मंजिल स्थित कक्षा में पहुंचती है।
गरिमा, उसके परिवार और गांव के लिये 22 जनवरी गौरव का दिन था जब राष्ट्रपति मुर्मू ने उन्हें राष्ट्रीय बाल पुरस्कार दिया। वह राष्ट्रपति के अलावा प्रधानमंत्री से भी मिली। 26 जनवरी को अन्य क्षेत्रों में पुरस्कृत बच्चों के साथ शान से कर्तव्यपथ पर निकली। उल्लेखनीय है कि ये पुरस्कार असाधारण योग्यता व उत्कृष्ट उपलब्धियों के लिये बच्चों को सात श्रेणियों में दिये जाते हैं। गरिमा को ये पुरस्कार सामाजिक कार्यों में योगदान के लिये दिया गया। प्रत्येक विजेता बच्चे को सम्मान स्वरूप एक पदक, प्रमाणपत्र और एक प्रशस्ति पुस्तिका दी जाती है। बहरहाल, गरिमा इस पुरस्कार से प्रफुल्लित है और आगे साक्षर पाठशाला के मिशन में ज्ञान की रोशनी बांटने के लिये इसे ऊर्जा मान रही है।
दरअसल, गरिमा की सोच रही है कि शिक्षा बच्चे का मौलिक अधिकार है। हर बच्चे को शिक्षा मिले। गरीबी व अन्य परिस्थितियों के कारण जो बच्चे पढ़ नहीं पाते, उन्हें शिक्षा पाने के लिये मौका देकर प्रेरित किया जाना चाहिए। गरिमा ‘साक्षर पाठशाला’ में शामिल होने के लिये बच्चों को प्रेरित करती है। वह स्लम एरिया में जाकर बच्चों में कायदा, पेन, पेंसिल, गुब्बारे, टॉफी बांटकर स्कूल की अच्छाइयों से अवगत कराती है। इस काम में उसके पिता भी मदद करते हैं। उसकी इस सफलता से उसके गांव नावदी के लोग भी खासे खुश हैं कि उनके गांव की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हुई है। वे मान रहे हैं कि बेटी के भीतर की मेधा, प्रज्ञा और विवेक ने छोटी उम्र में उसे राष्ट्रीय स्तर की ख्याति दिलाई है। वह अपनी आंतरिक क्षमताओं से वंचित समाज के लोगों का जीवन संवारेगी।
उसकी उपलब्धि को जनपद महेंद्रगढ़ के प्रशासन ने भी हाथों-हाथ लिया है। राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने के बाद जिला उपायुक्त ने गरिमा को ‘मेरी लाडो, मेरी शान’ कार्यक्रम का ब्रांड एंबेसडर बनाया है।

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