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भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय को गरिमामय विस्तार

06:44 AM Feb 15, 2024 IST
भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय को गरिमामय विस्तार
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लोकमित्र गौतम

संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की राजधानी अबू धाबी में बोचासनवासी श्रीअक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था (बीएपीएस) हिंदू मंदिर का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वसंत पंचमी को किया। इससे पहले 22 जनवरी को प्रधानमंत्री मोदी अयोध्या के ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ के भव्य कार्यक्रम में शामिल हुए थे।  निस्संदेह, भारत विश्व परिदृश्य में बड़ी तेजी से एक सांस्कृतिक महाशक्ति बनकर उभरा है। प्रधानमंत्री मोदी पिछले नौ सालों में अगर सातवीं बार संयुक्त अरब अमीरात के दौरे पर रहे तो इसके वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में खास मायने हैं। साथ ही हम दुनिया की एक स्वीकार्य सांस्कृतिक महाशक्ति भी बन रहे हैं।
अबू धाबी में अबू मुरीखा में बना यह भव्य बीएपीएस मंदिर, भारत की उस ताकत को दर्शा रहा है, जो डाॅलरों से परे है। दूसरे धर्मों के प्रति कट्टरता से अलगाव और उदासीनता का भाव रखने वाले संयुक्त अरब अमीरात में यह न सिर्फ पहला गैर-इस्लामिक पूजास्थल है बल्कि करीब 16 एकड़ में बने इस मंदिर की जमीन खुद यूएई सरकार ने उपलब्ध कराई है। वह भी भारत के साथ बेहतर आर्थिक और सांस्कृतिक रिश्तों को प्रदर्शित करने के लिए बिलकुल मुफ्त। यह अकारण नहीं है कि आज भारत के बाद संख्या में सबसे ज्यादा हिंदू मंदिर अमेरिका में हैं। दुनियाभर में करीब 20 लाख हिंदू मंदिर हैं, जिनमें से करीब 6.5 लाख मंदिर भारत में हैं और बाकी दुनिया के सौ से ज्यादा देशों में प्रतिष्ठित हैं। सबसे ज्यादा मंदिर देश के भीतर तमिलनाडु में हैं तो विदेश में अमेरिका नंबर एक पर है।
निस्संदेह, अतीत में भी हम एक बड़ी सांस्कृतिक ताकत रहे हैं, जिसका असर भू-राजनीतिक और कूटनीतिक दोनों में ही देखने को मिलता रहा है। भारत के पास हमेशा से दूसरों को अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और विविध परंपराओं तथा इतिहास से प्रभावित करने की क्षमता रही है। साहित्य, संगीत, सिनेमा, योग, अध्यात्म और लाखों तरह के भोजन, व्यंजनों में भारत की महारत हमेशा से दुनिया को चकित करती रही है। जिस ग्लोबलाइजेशन को 20वीं सदी का विचार माना जाता है, उस भूमंडलीकरण की सोच और धारणा भारत में वैदिक युग से रही है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम‍्’ की अवधारणा भारत ने आज नहीं, 4000 साल पहले दी थी। वैश्विक ग्राम या विश्व नागरिक को लेकर दुनिया आज भी उस ऊंचाई तक नहीं सोच पाती, जिस ऊंचाई तक भारत में 4000 साल पहले सोच लिया गया था।
आजादी के बाद भारत हमेशा से अपनी विदेशनीति में सांस्कृतिक ताकत को एक महत्वपूर्ण ताकत के रूप में इस्तेमाल करता रहा है। दरअसल, भारत में करीब 90 साल तक चला अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध आजादी का आंदोलन सही मायनों में एक विराट सांस्कृतिक आंदोलन ही था। वाल्मीकि रचित रामायण, कालीदास रचित महान नाट्य ग्रंथ और जनभाषा में रची गई रामचरितमानस, भारतीय साहित्य की वो थातियां हैं, जिनकी पूरी दुनिया मुरीद है। ऐसे में तब भारत की सांस्कृतिक ताकत सोने में सुहागा बन जाती है, जब पारंपरिक चिकित्सा, योग और भोजनकला में हमने असीमित विस्तार किये हों।
भारत का राजनीतिक वर्ग हमेशा से इस बात को जानता रहा है कि हम एक बड़ी सांस्कृतिक ताकत हैं, इसलिए साल 1950 में ही तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक मजबूत भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की स्थापना करवा दी थी।
यही वजह है कि भारत विभाजन के बावजूद दुनिया में एक सांस्कृतिक महाशक्ति है, वहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश करीब-करीब सांस्कृतिक शून्यता के दौर में हैं। जबकि दोनों ही देशों के पास दो बड़ी क्षेत्रीय संस्कृतियां थीं।
भारत आज न सिर्फ अतीत की अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा का उन्मुक्त होकर प्रदर्शन कर रहा है बल्कि पूरी दुनिया लगातार हिंदुस्तान की इस दावेदारी को मान्यता दे रही है। 21 जून, 2015 को दुनियाभर में जिस तरह आधिकारिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया और साल 2014 में जिस भारी बहुमत से संयुक्त राष्ट्र महासभा में योग दिवस की संकल्पना को ध्वनिमत से समर्थन दिया गया, वह नये दौर के भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय का गगनघोष था। भारत ने हाल के सालों में अपनी आध्यात्मिक परंपरा, योग का विस्तार किया है। करीब 600 बिलियन से भी ऊपर की योग की वैश्विक अर्थव्यवस्था में न सिर्फ भारतीयों को बहुत बड़ा लाभ हुआ है बल्कि भारत की सांस्कृतिक महत्ता और भारतीय सभ्यता के प्रति पूरी दुनिया में योग ने एक अलग तरह से सम्मान निर्मित किया है। निश्चित रूप से यह अकेले मौजूदा केंद्र सरकार की उपलब्धि नहीं है। इसमें आजादी के बाद की सभी सरकारों का बराबर का योगदान भी शामिल है। लेकिन जिस तरह से मौजूदा सरकार ने एक कल्चरल मिशन के बतौर भारतीय संस्कृति का व्यापक प्रचार प्रसार पिछले 10 सालों में किया है, वह प्रशंसनीय है।

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