रिश्वत की डायबिटीज़ और मुफ्तखोरी का बीपी
राकेश सोहम्
यों तो इस घोर कलियुग में, ‘भ्रष्टाचारी सदा सुखी’ वाली बात चरितार्थ होती है, लेकिन कोई यह कहे कि स्वस्थ रहना है तो भ्रष्टाचार से दूर रहना होगा! तब ज़रा आश्चर्य होता है। करीब एक दशक पूर्व राम सिंह ने राष्ट्रीय मास्टर्स एथलेटिक्स स्पर्धा में दो स्वर्ण पदक जीते थे। तब उनकी उम्र 82 वर्ष थी। उन्होंने ये पदक दो सौ और पांच हज़ार मीटर की रेस में जीते थे। वे बयासी वर्ष की उम्र में भी युवा जैसी दौड़ लगाते थे। उन्होंने इसका राज़ बताते हुए कहा था कि वे भ्रष्टाचार से सदैव दूर रहते आए हैं। यह मन को बीमार कर देता है। स्वस्थ रहना है तो भ्रष्टाचार से दूर रहना होगा।
बीते दस वर्ष में भले ही दुनिया बदल गई है किन्तु भ्रष्टाचार के प्रति आस्था और आसक्ति यथावत जान पड़ती है। लोगों को जो हाथ लग रहा है, लपक ले रहे हैं। व्यापारी की तासीर ही लूटने की है। ग्राहक लुटे जा रहे हैं। अमीर बेचैन बिस्तर पर लूटने की तरकीबें सोच रहा है। आम आदमी परेशान है और जुगाड़ू तरकीबें तलाश रहा है। सरकारी योजनाओं से ओहदेदारों की उगाही की फसलें लहलहा रही हैं।
आम धारणा है कि भ्रष्टाचार से बीमार का मन मतंगा हो जाता है। ईमानदारी तेल लेने निकल जाती है। भ्रष्टाचार के अचार के साथ नोट सूतने का आनंद निराला होता है। स्वास्थ्य बेहतर रहता है! जठराग्नि तीव्र हो जाती है। भूख परवान चढ़ने लगती है। व्यक्ति अखाद्य के भक्षण और उसे पचा जाने की सामर्थ्य को प्राप्त होता है। वह ईंट, गिट्टी, सीमेंट, रेत जैसी चीजें उदरस्थ करने लगता है।
बहरहाल, जनकलाल को एक ठेकेदार गली में मिल गया। उन्होंने पूछा, ‘क्या बात है, तबीयत ठीक नहीं है क्या?’ वह चुप रहा और उत्तर में सिर हिला दिया, जिसका मतलब हां था। जनकलाल ने उसे मुफ्त की सलाह दे डाली, ‘कोई गंभीर बात तो नहीं है ठेकेदार जी? न हो तो डॉक्टर को दिखा लो।’ ठेकेदार क्रोधित हो गया और बोला, ‘नहीं जी, सब ठीक है। बस एक बड़ा ठेका अपने हाथ से निकल गया है।’ जनकलाल ने दुखी होने का अभिनय किया, क्योंकि वह जानते हैं कि जिसे मोटी कमाई की लत लग जाती है उसकी तबीयत कमाई में तनिक भी कमी हो तो गड़बड़ा जाती है। उसकी रिश्वत की डायबिटीज़ और मुफ्तखोरी का बीपी हाई हो जाते हैं। बेचारे बीमारों का ‘बिन भ्रष्टाचार सब सून’ होता है।