For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

मानवता के कल्याण हेतु धन्वंतरि अवतरण

07:12 AM Nov 06, 2023 IST
मानवता के कल्याण हेतु धन्वंतरि अवतरण
Advertisement

चेतनादित्य आलोक
दिवाली से दो दिन पहले यानी कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाया जाने वाला अत्यंत लोकप्रिय त्योहार ‘धनतेरस’ धन-धान्य ही नहीं, बल्कि चिकित्सा एवं स्वास्थ्य जगत की भी समृद्ध विरासत का प्रतीक है। दरअसल, यही वह दिन है, जब समुद्र मंथन के दौरान ब्रह्मांड के प्रथम चिकित्सा-विज्ञानी भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए थे। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इससे पूर्व आश्विन मास की पूर्णिमा यानी शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय का प्राकट्य समुद्र से हुआ था, जबकि धनतेरस या धनत्रयोदशी के बाद कार्तिक चतुर्दशी को मां काली एवं अमावस्या अर्थात‍् दिवाली को माता लक्ष्मी का अवतरण हुआ था। समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुए चतुर्भुजधारी भगवान धन्वंतरि के एक हाथ में आयुर्वेद शास्त्र, दूसरे में वनस्पति यानी औषधि, तीसरे में शंख और चौथे हाथ में अमृत-कलश था। उनके हाथ में अमृत-कलश देखते ही देवता और दानव उसे पान करने हेतु लालायित हो दौड़ पड़े थे।
श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित है कि भगवान धन्वंतरि की छवि अत्यंत मोहक थी। उनका शरीर बादलों-सा उज्ज्वल और प्रदीप्त था। उनके नेत्र कमल के समान सुंदर और मोहक थे। उनका वक्ष सख्त एवं विशाल था और उनके हाथ लम्बे थे। गले में अनेक प्रकार के रत्नाभूषणों एवं विभिन्न जड़ी-बूटियों से गुंफित वनमाला तथा शरीर पर पीताम्बर धारण करने वाले भगवान धन्वंतरि चिर युवा प्रतीत होते थे। ग्रंथों में उल्लेखित है कि भगवान धन्वंतरि ने प्रकट होते ही आयुर्वेद का परिचय कराया था। यही कारण है कि देवी-देवताओं के वैद्य भगवान धन्वंतरि को आयुर्वेद महाविज्ञान का प्रवर्तक भी माना जाता है। हालांकि आयुर्वेद महाविज्ञान के संबंध में स्थापित सत्य यह है कि सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने एक लाख श्लोकों वाले आयुर्वेद शास्त्र की रचना की। इसीलिए इसका एक नाम ‘ब्रह्म-संहिता’ भी है। शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मदेव से आयुर्वेद महाविद्या का ज्ञान सर्वप्रथम अश्विनी कुमारों ने सीखा था, जिसे बाद में उन्होंने देवराज इंद्र को सिखाया। कालांतर में देवराज इंद्र ने भगवान धन्वंतरि को आयुर्वेद महाविद्या में कुशल बनाया।
एक पौराणिक कथानुसार भूलोक में प्राणियों को बीमारियों से पीड़ित एवं मृत्यु का शिकार होते देख भगवान विष्णु को दया आ गयी। तत्पश्चात उन्होंने ‘चर’ की भांति छिपकर विशुद्ध नामक ऋषि के रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया। चूंकि वे पृथ्वी पर ‘चर’ की भांति छिपकर आये थे, इसलिए वे ‘चरक’ कहलाये। उन्होंने बाद में ऋषि-मुनियों द्वारा रचित विविध संहिताओं को परिमार्जित कर ‘चरक संहिता’ नामक महान चिकित्सा शास्त्र की रचना भी की। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार एक बार देवराज इंद्र ने भूलोक पर देखा कि बड़ी संख्या में लोग रोगग्रस्त हो रहे हैं। उसके बाद उनकी प्रेरणा से भगवान धन्वंतरि ने काशी के राजा दिवोदास के रूप में अवतार लिया। कालांतर में अपने पिता विश्वामित्र की आज्ञा से महर्षि सुश्रुत अपने साथ एक सौ ऋषि-पुत्रों को लेकर काशी पहुंचे और राजा दिवोदास, जिन्हें ‘काशीराज’ भी कहा जाता था, से आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की। बाद में उन ऋषि-मुनियों ने लोक-कल्याणार्थ अपनी-अपनी संहिताओं एवं ग्रंथों की रचना की। महर्षि सुश्रुत द्वारा रचित संहिता का नाम ‘सुश्रुत-संहिता’ है, जो आयुर्वेद का एक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।
इसके अतिरिक्त उन ऋषि-मुनियों ने सभी पृथ्वी वासियों के रोगों के निवारणार्थ उपचार की अनेक पद्धतियां भी विकसित कीं। यही वह कालखंड था, जब महान वैद्य एवं चिकित्सा विज्ञानी वाग्भट्ट जी ने भी काशीराज के रूप में भगवान धन्वंतरि से आयुर्वेद का विस्तृत ज्ञान प्राप्त किया। बाद में उन्होंने ‘आष्टांग हृदय’ नामक ग्रंथ की रचना भी की, जो आयुर्वेद महाविज्ञान का एक मानक ग्रंथ है। बाद में काशी के राजा दिवोदास ने काशी में विश्व का पहला शल्य चिकित्सा विद्यालय स्थापित किया और आचार्य सुश्रुत को उसका प्रधानाचार्य नियुक्त किया। भगवान धन्वंतरि के माध्यम से ही प्रजापिता ब्रह्मा जी द्वारा प्रदत्त आयुर्वेद महाविज्ञान के अद्भुत, अलौकिक, सार्वकालिक एवं अत्यंत महत्वपूर्ण ज्ञान का पृथ्वी पर प्रचार-प्रसार हुआ।

Advertisement

Advertisement
Advertisement