भक्ति और आसक्ति
घटना उस समय की है जब ज्योतिर्मठ, बदरिकाश्रम के शंकराचार्य ब्रह्मलीन स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज मात्र चौदह साल के बालक थे। इतनी कम आयु में ही बालक के मन में यह दृढ़ विश्वास हो चला कि भगवत दर्शन के बिना संसार की सब वस्तुयें निर्रथक हैं। इस बाल तपस्वी ने भौतिक संसार का मोह छोड़कर, एकांत और आध्यात्मिक स्पंदनों से युक्त हिमालय पर्वत पर जाने का निश्चय किया और परिजनों से आज्ञा मांगी। बालक के मुख से त्याग और वैराग्य की बात सुनकर परिवार के लोग बहुत चिंतित हुए। इस कोमल आयु में वैराग्य के कष्टों की कल्पना मात्र से ही वे कांप उठे। अतः परिवार वालों ने इसकी इजाजत नहीं दी, परंतु बाल तपस्वी अपनी गृह-त्याग की जिद पर अड़ा रहा। कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि बालक की मां द्वारा उसे समझाने के लिए कहा जाए। हो सकता है कि मातृ स्नेह के कारण बच्चा अपनी जिद छोड़ दे। परिवार वालों ने बालक को अपनी माता से गृह त्याग की अनुमति लेने को कहा। बाल तपस्वी अपनी माता के पास गए और घर छोड़कर जाने की आज्ञा मांगी। मां बहुत आध्यात्मिक प्रवृत्ति की थी, उन्होंने अपने बेटे की भगवत ज्ञान जिज्ञासा का सम्मान करते हुए आशीर्वाद दिया- ‘बेटे जाओ और प्रभु भक्ति में रम जाओ। लेकिन याद रखना, तुम्हें भीख मांगने वाला साधु नहीं बनना है। अगर जीवन में कभी भी यह लगे कि संन्यास लेकर गृहस्थ जीवन का आनंद खो दिया है तो पश्चाताप मत करना, निःसंकोच अपने घर लौट आना।’
प्रस्तुति : मधुसूदन शर्मा