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तर्कशील सोच विकसित करें समाज में

07:25 AM Jul 09, 2024 IST
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क्षमा शर्मा
इन दिनों एक बाबा बहुत चर्चा में है। उसके द्वारा आयोजित सत्संग में एक सौ इक्कीस लोगों की जान जा चुकी है। न जाने कितने घायल हुए हैं। मरने वालों में स्त्रियां और बच्चे भी हैं। हमें बुरा तो लगता है, जब पश्चिम के लोग भारत को चमत्कार और अंधविश्वासों का देश कहते हैं, मगर किसी हद तक सच भी है। हालांकि, पश्चिम के लोग भी कोई कम नहीं, जहां बहुत से धूर्त चमत्कारी पानी पिलाकर लोगों को ठीक करने का दावा करते हैं। अपने यहां भी ऐसा होता है।
भारत में ऐसे असंख्य बाबा हैं, जिनके असंख्य भक्त भी हैं। बड़े-बड़े आश्रम हैं। सुख-सुविधाओं की कोई कमी नहीं। इनमें से बहुत से गम्भीर अपराधों में पकड़े भी गए हैं, मगर एक पकड़ा जाता है तो दस प्रकट हो जाते हैं।
लोग कह रहे हैं कि आखिर ऐसे बाबाओं के फेर में जनता आती ही क्यों है। इसका एक बड़ा कारण तो ऐसे बाबाओं का प्रभामंडल इस तरह से गढ़ा जाता है कि लोग इनके जाल में फंस जाते हैं। ये लोगों को परेशानियों से मुक्ति का भ्रम देते हैं। आखिर बीमारी की अवस्था में परेशान लोग डाक्टरों के पास क्यों नहीं जाते। इसका बड़ा कारण है। अपने देश में चिकित्सा सुविधाओं का घोर अभाव। दूर-दराज के गांवों को तो छोड़िए, छोटे शहरों तक में ऐसे अस्पताल नहीं हैं, जो ठीक-ठाक इलाज कर सकें। जो हैं उनमें से बहुत से ऐसे हैं जो मरीज और उसके परिजनों को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझते हैं। यही कारण है कि बड़े शहरों में जो प्रसिद्ध अस्पताल हैं, वहां भीड़ बढ़ती जाती है और डाक्टर ओवर वर्क्ड होते हैं। इसके अलावा लोगों की आस्था भी होती है कि वे किसी बाबा की शरण में जाएंगे तो उसके हाथ लगाते ही बीमार व्यक्ति ठीक हो जाएगा।
वैसे अपने देश में देवताओं की भी कोई कमी नहीं है। तैंतीस कोटि देवता बताए जाते हैं। बहुत से लोकल गार्ड्स भी हैं। वे भी लोगों द्वारा पूजे जाते हैं। तब हर रोज बनते इन बाबाओं का क्या काम। लेकिन अक्सर ये बाबा भी अपने को किसी भगवान का अवतार घोषित कर देते हैं।
इस संदर्भ में बचपन की एक घटना याद आती है। बड़े भाई को बचपन से ही पोलियो था। मां कहती थी कि उनके दोनों पैरों में पोलियो हुआ था। एक वैद्य ने उनका एक पांव का पोलियो ठीक कर दिया था। लेकिन दूसरे पैर का इलाज करते वक्त, उसे दादा जी का नाम पता चला। दादा जी ने गणित के इम्तिहान में उसके आग्रह के बावजूद उसके बेटे को पास नहीं किया था। वैद्य ने दुश्मनी निभाई और भाई का इलाज नहीं किया। खैर, मां और पिता जी के प्रयत्न से बड़े भाई बहुत उच्च शिक्षित हुए और कालेज में पढ़ाने लगे। एक बार आगरा में खबर फैली कि पास के गांव में एक बाबा आने वाले हैं। उनके हाथ लगाते ही बड़े से बड़ा रोग ठीक हो जाता है। मां उन दिनों वहीं थीं। वह भाई के पीछे पड़ गई। भाई ने बहुत विरोध किया। कहा कि उन्हें इन चीजों में कतई विश्वास नहीं है। मगर मां नहीं मानी। उसने खाना-पीना छोड़ दिया। अंत में भाई को उनकी जिद के आगे झुकना पड़ा। मां के साथ भाई और तीन-चार साल की यह लेखिका भी वहां पहुंचे जहां बाबा को आना था। वहां बेहद भीड़ थी। बाबा के लिए चार बांसों पर खटोला लगाकर एक मंच बनाया गया था। भीड़ शाम तक इंतजार करती रही मगर बाबा नहीं आया। सब निराश होकर लौट गए। कुछ दिन बाद खबर आई कि वह बाबा स्मगलिंग के केस में पकड़ा गया था।
यह भी कितने अफसोस की बात है कि बहुत से ऐसे बाबाओं को मीडिया का एक बड़ा हिस्सा खूब दिखाता है। उसका मानना है कि चूंकि बड़ी संख्या में लोग इनके अनुयायी होते हैं, इसलिए उनके चैनल की लोकप्रियता बढ़ती है। यही हाल राजनेताओं का भी है। वे अक्सर इन बाबाओं के खिलाफ इसी डर से नहीं बोलते कि इनके अनुयायी उन्हें वोट नहीं देंगे। हाथरस वाले बाबा के प्रसंग में भी यही सब हो रहा है। सिवाय दलितनेत्री मायावती के शायद ही कोई बोला है। यहां यह भी बताना समीचीन है कि यह घटना हाथरस के पास के शहर सिकंदरा राऊ के पास हुई है। लेकिन चैनल्स और अखबार इसे हाथरस बता रहे हैं। कुछ साल पहले जिस बच्ची के संदर्भ में हाथरस का जिक्र आया था, वह जगह भी हाथरस से लगभग बारह किलोमीटर दूर चंदपा थी। लेकिन दोनों प्रसंगों में नाम हाथरस का बदनाम हो रहा है।
इन दिनों हम आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के कारण एक ऐसे दौर में हैं, जहां उंगली अक्सर दूसरे की तरफ उठती है। अपनी जाति-धर्म के अपराधियों के समर्थन में भी लोग उठ खड़े होते हैं। कौन ज्यादा बड़ा अपराधी है और किस जाति-धर्म का है, इसकी प्रतियोगिता होने लगती है।
कहा जाता है कि शिक्षा ऐसे पाखंडों से दूर करती है। लेकिन यह भी आंशिक सच ही है। बहुत से उच्च शिक्षित लोग भी ऐसे चमत्कारों में विश्वास करते देखे जाते हैं। बल्कि उच्च पदस्थ लोगों में गुरु बनाने का भी चलन बढ़ गया है।
सिकंदरा राऊ की घटना के आलोचक यह भी कह रहे हैं कि आखिर औरतें क्यों इन पर विश्वास कर लेती हैं। स्त्रियां क्या करें। अपनी तकलीफों के हरण के लिए उन्हें कोई न कोई सहारा तो चाहिए। गरीबों के पास पैसे तो होते नहीं, इसलिए वे चमत्कार की शरण में जाते हैं।
एक समय में मीडिया के बारे में कहा जाता था कि ज्यों-ज्यों मीडिया बढ़ेगा, त्यों-त्यों लोग शिक्षित होंगे। वे अंधविश्वासों से निजात पाएंगे। मगर नब्बे के दशक के बाद जब से अपने यहां मीडिया में मार्केटिंग का प्रवेश हुआ, तब से मीडिया के एक वर्ग ने यह कहना शुरू किया कि उनका काम समाज सुधार करना नहीं है, व्यापार करना और मुनाफा कमाना है। यह लगभग फिल्म बनाने वालों का तर्क था, जो किसी फूहड़ फिल्म तक के बचाव में यह कहते पाए जाते हैं कि हम तो वही बनाते हैं जो लोग देखना चाहते हैं। अगर हमारी फिल्म पसंद नहीं, तो लोग न देखें। यही बात चैनल्स के बारे में भी लोग कहते हैं कि अगर किसी चैनल के कार्यक्रम से आप सहमत नहीं तो चैनल बदल दीजिए। अब लगता है कि जिस दूरदर्शन को इडियट बाक्स कहकर बहुत से लोग अपने को बुद्धिमान दिखाते थे, वह कहीं ज्यादा अच्छा था। वहां किसी अंधविश्वास को फैलाने वाले कार्यक्रम की शायद ही कोई जगह थी।
सवाल यही है कि जिनके हाथ में चाहे राजनीति की सत्ता है, मीडिया की सत्ता है, धन की सत्ता है, वे अपने-अपने लालच से कैसे बाज आएं। किसी को टीआरपी की चिंता है, किसी को वोट की, किसी को व्यापार के घटने की। ऐसे में आम जनता को कौन समझाए कि भाई ऐसे चमत्कार न होते हैं, न कोई कर सकता है। चमत्कार दिखाकर ऐसे पाखंडी रातोंरात अमीर जरूर बन सकते हैं।

लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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