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जलवायु परिवर्तन के मुकाबले को बनें कारगर नीतियां

10:22 AM Jun 05, 2024 IST
जलवायु परिवर्तन के मुकाबले को बनें कारगर नीतियां
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ज्ञाानेन्द्र रावत

जलवायु परिवर्तन समूची दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। जलवायु परिवर्तन से समुद्र का जलस्तर बढ़ने से कई द्वीपों और दुनिया के तटीय महानगरों के डूबने का खतरा पैदा हो गया है। इस संकट से जूझ रही दुनिया इसकी भारी आर्थिक कीमत चुका रही है। सबसे बड़ा संकट तो जमीन के दिनों-दिन बंजर होने का है। यदि सदी के अंत तक तापमान में दो डिग्री की भी बढ़ोतरी हुई तो 115.2 करोड़ लोगों के लिए जल, जमीन और भोजन का संकट पैदा हो जायेगा। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस का कहना है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य अब भी पहुंच से बाहर हैं। समय की मांग है कि विश्व समुदाय सरकारों पर दबाव बनाये ताकि वे इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ने की ज़रूरत को समझ सकें।
समूची दुनिया में करीब 40 फीसदी जमीन बंजर हो चुकी है। इसमें यदि 6 फ़ीसदी घोषित रेगिस्तान को छोड़ दिया जाये तो शेष 34 फीसदी जमीन पर करीब 4 अरब लोग निर्भर हैं। इस पर सूखा, यकायक ज्यादा बारिश, बाढ़, खारेपन, रेतीली हवाओं आदि के चलते बंजर होने का खतरा मंडरा रहा है। यह भी कि तेजी से बढ़ रही आबादी और जलवायु परिवर्तन के कारण फसल की पैदावार दर में तीन फीसदी की गिरावट के अंदेशे से दुनिया में 2050 तक भोजन की भारी कमी का सामना करना पड़ेगा। फिर दुनिया की 50 फीसदी प्राकृतिक चारागाहों की जमीन के नष्ट होने से जलवायु, खाद्य आपूर्ति और अरबों लोगों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो गया है। यह भूमि वैश्विक खाद्य उत्पादन का छठा हिस्सा है जिस पर दुनिया के दो अरब लोग निर्भर हैं।
जलवायु परिवर्तन से मानसिक सहित कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं खड़ी हो रही हैं। लैंसेट न्यूराेलाॅजी जर्नल में प्रकाशित शोध में खुलासा हुआ है कि इसका माइग्रेन, अल्जाइमर आदि से पीड़ित लोगों पर ज्यादा नकारात्मक असर पड़ता है। चिंता, अवसाद और सिजोफ्रेनिया सहित कई गंभीर बीमारियों को भी गहरे तक प्रभावित किया है। जलवायु के प्रभाव से स्ट्रोक और मस्तिष्क में संक्रमण के प्रमाण पाये गये हैं। इससे तनाव, अवसाद के मामलों में बढ़ोतरी हो सकती है। साथ ही दुनिया के 70 फीसदी श्रमिकों यानी 240 करोड़ लोगों की सेहत पर खतरा है।
जलवायु परिवर्तन के असर से जीव-जंतु और पेड़-पौधे भी अछूते नहीं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई और तीव्र औद्योगीकरण ने इकोसिस्टम को भी जबरदस्त प्रभावित किया है। इससे 30 फीसदी प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है। प्रतिकूल जलवायु के कारण जीव-जंतुओं को अपना प्राकृतिक वास छोड़ना पड़ सकता है। उनकी प्रजनन क्षमता भी प्रभावित होगी।
यूनीसेफ ने चेतावनी दी है कि यदि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ठोस कोशिश नहीं की गयी तो दुनिया में लगभग एक अरब बच्चे जलवायु संकट के प्रभावों के अत्यंत उच्च जोखिम का सामना करने को विवश होंगे। दरअसल बढ़ते तापमान, पानी की कमी और खतरनाक श्वसन स्थितियों का घातक प्रभाव बच्चों पर अधिक पड़ता है।
जलवायु परिवर्तन से पूरे विश्व को होने वाला नुकसान पहले के अनुमान से छह गुणा अधिक है। सदी के अंत तक यह 38 ट्रिलियन डॉलर हो जायेगा। बढ़ते तापमान, भारी वर्षा और तीव्र चरम मौसम के कारण मध्य शताब्दी तक हर साल 38 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान होने का अनुमान है। जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित न करना इसके बारे में कुछ करने की तुलना में बहुत अधिक महंगा है। शोध के अनुसार 1.8 डिग्री सेल्सियस दुनिया पहले ही गर्म हो चुकी है। 1056 डालर प्रति टन नुकसान होता है कार्बन उत्सर्जन से और 12 फीसदी की जीडीपी में गिरावट तापमान वृद्धि की वजह से होती है। फिर जलवायु परिवर्तन से सुपरबग का दिनों-दिन बढ़ता खतरा महामारी का रूप लेता जा रहा है। सुपरबग ऐसा बैक्टीरिया है जिस पर एंटीबायोटिक दवाओं का कोई असर नहीं होता। चिकित्सा के क्षेत्र में ये सबसे बड़ी चुनौती है।
अमेरिका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी ने जलवायु परिवर्तन के कारण चक्रवात की घटनाएं बढ़ने की आशंका जताई है। अध्ययन कर्ताओं ने कहा है कि समुद्र के बढ़ते जलस्तर और जलवायु परिवर्तन के कारण अगले कुछ दशकों में तटीय इलाकों में भीषण चक्रवात एवं तूफानों के बीच समय का अंतराल कम हो जायेगा। इस बारे में अब तक उठाए गये कदम जलवायु लक्ष्यों के अनुरूप नहीं हैं और उनकी रणनीतियां अपर्याप्त और अस्पष्ट हैं। ऐसी हालत में जलवायु लक्ष्य पाना बेहद मुश्किल है। फिर जलवायु संकट से निपटने के लिए दुनिया में जारी प्रयास स्वैच्छिक हैं। इस दिशा में जब तक कानूनी रूप से बाध्यकारी नीतियां नहीं होंगी, तब तक जलवायु लक्ष्यों को पाना मुश्किल है।
यूरोपीय मानवाधिकार अदालत का मानना है कि देशों का दायित्व है कि वे अपने नागरिकों को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से हरसंभव तरीके से बचाने का प्रयास करें। यहां बड़ा सवाल यह भी कि जलवायु की रक्षा के लिए इतना पैसा कहां से जुटाया जायेगा। काॅप 28 सम्मेलन में भी इस बाबत हानि एवं क्षति कोष में शुरुआती रूप से 47.50 करोड़ डॉलर फंडिंग का अनुमान था। इसके लिए विकासशील देशों को हर साल करीब 600 अरब डॉलर की ज़रूरत होगी जो विकसित राष्ट्रों द्वारा किए गये वादे से काफी कम है। ऐसी स्थिति में अमीर देशों पर अतिरिक्त टैक्स ही जलवायु संकट से उबार सकता है।

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