दोषपूर्ण विकास नीतियों से उपजी तबाही
06:23 AM Jul 19, 2023 IST
बस यह कुछ ही दिनों की बात है, शीघ्र हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों में भारी बारिश से मची तबाही के बाद राहत और पुनर्वास कार्य होगा। वहीं पंजाब, हरियाणा व दिल्ली बाढ़ से उबर जायेंगे तो उसके बाद सब कुछ पूर्ववत् चलने लग जायेगा।
जब मैं ‘सब कुछ पहले जैसा’ कहता हूं तो मेरा आशय यह नहीं है कि जीवन फिर से सामान्य हो जायेगा। बेशक ऐसा तो होगा ही, लेकिन इससे भी अहम यह है कि हम उन सबकों को भूल गए होंगे जो क्रोधित प्रकृति ने केवल चार दिनों तक पहाड़ों पर लगातार मूसलाधार बारिश के माध्यम से देने की कोशिश की थी। जबकि 60,000 फंसे हुए पर्यटकों को निकाला गया है, फौरी तौर पर करीब 4,000 करोड़ रुपये के नुकसान का अंदाजा है।
रिपोर्ट के मुताबिक, भारी वर्षा से अनगिनत भूस्खलन हुए और सड़कों को नुकसान पहुंचा जिससे करीब 1321 मार्ग अवरुद्ध हो गये, 750 जल परियोजनाएं प्रभावित हुईं और करीब 4500 ट्रांसफॉर्मर बेकार हो गये। उफनती नदियों का रौद्ररूप ऐसा था कि रास्तों पर साइड में खड़ी अनगिनत कारों व अन्य वाहनों के अलावा कई पुल भी बह गये। कई जगहों पर तो पहाड़ों पर जमा कचरा भी नीचे की तरफ बहता देखा गया। निश्चित तौर पर दृश्य विचलित कर देने वाला था।
संक्षेप में, हिमाचल प्रदेश में भारी बारिश और पंजाब, हरियाणा के निचले इलाकों में बसे शहरों, कस्बों और खेतों में बड़े पैमाने पर बाढ़ से निश्चित तौर पर बड़ी तबाही का मंजर है। चार दिन की भारी बारिश में कई शहर व कस्बे पानी के लबालब भरे तालाब जैसे नजर आये। जिनमें कारें डूबी हुई थीं या फिर तैर रही थीं। हम जानते हैं कि यमुना का जलस्तर अब तक का सर्वाधिक था और इसके किनारे पर दिल्ली के निचले इलाकों में बसे लोग हैं। इसके साथ ही पंजाब में कई जगह सेना बुलानी पड़ी। सही-सही नुकसान का अंदाजा पानी उतरने के बाद ही लग सकेगा। पहले ही, 10000 से ज्यादा लोग सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाए जा चुके हैं।
जब मुझसे पूछा गया कि बाढ़ के पीछे क्या कारण लगता है, तो मैंने एक टीवी चैनल से कहा : ‘यह शायद प्रकृति का अपनी नाराजगी व्यक्त करने का तरीका था।’ ‘मैंने ऐसा क्यों सोचा’ के पूरक प्रश्न पर मेरी प्रतिक्रिया थी कि पिछले कुछ वर्षों में हिमाचल प्रदेश में कंक्रीटीकरण के चलते अंधाधुंध विकास हुआ है, जिससे सभी पारिस्थितिक सुरक्षा उपाय ताक पर रखे गये हैं। तेजी से जंगलों के कटान और 4-लेन या 6-लेन राजमार्गों के निर्माण के लिए पहाड़ों में लापरवाही भरे विस्फोटों से, नाजुक पहाड़ियां जर्जर हो गई हैं। हालांकि यह ज्ञात है कि राज्य के सभी 77 ब्लॉक कमजोर और भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील हैं, इसके बावजूद राजमार्गों का निर्माण करते समय सभी तकनीकी मानदंडों को ताक पर रख दिया जाता है। इसके अलावा, 2019 तक, हिमाचल प्रदेश में 153 पनबिजली परियोजनाएं थीं, जिसके परिणामस्वरूप पानी का प्राकृतिक प्रवाह अवरुद्ध होता है और कभी-कभी आने वाली बाढ़ के कारण पानी का मार्ग बदलता है, जिसके चलते और अधिक नुकसान हुआ।
दुर्भाग्यवश, ऐसे समय में जब विकास से जुड़े मुद्दे हावी होकर गूंज रहे हैं, तो पेड़ों के महत्व की बात दबकर रह गयी है। जिस तरह से राजमार्ग निर्माण के लिए पेड़ों को बेरहमी से काटा जाता है, उसकी भी बहुत भारी कीमत चुकानी होती है, लेकिन इसकी कम ही चर्चा की जाती है। जब फ्रेड पियर्स, (पूर्व साइंटिस्ट) ने येल एनवायरनमेंट 360 में एक निबंध में लिखा था कि ‘जंगल का प्रत्येक पेड़ एक फव्वारा है, जो अपनी जड़ों के जरिये जमीन से पानी खींचता है और अपने पत्तों में छिद्रों के माध्यम से जल वाष्प वायुमंडल में छोड़ता है।'- मूल रूप से यह नीति निर्माताओं के लिए सबक होना चाहिए था। जबकि पेड़ों की जड़ें मिट्टी को जकड़े रखती हैं, ऐसे में पेड़ों की तेजी से हो रही कमी के कारण पहाड़ियां भूस्खलन के प्रति संवेदनशील होती जा रही हैं। राजमार्गों के विस्तार और इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए बड़ी संख्या में पेड़ों को काटना बस एक संख्या मात्र बन गई है। भारत में 2021-22 में 43.9 हजार हेक्टेयर प्राथमिक वन गायब हो गये।
लोगों ने यह भी नहीं समझा कि वृक्षों में तापमान को ठंडा रखने की खास क्षमता है, कि एक वृक्ष का वातावरण को शीतल करने का प्रभाव दो एयर कंडीशनरों के समान है। इसलिए जब तापमान बढ़ जाता है तो उन्हीं लोगों को बढ़ी गर्मी से ज्यादा शिकायत होती है जिन्हें विकास के नाम पर वृक्षों के कटान से कोई परहेज नहीं है।
जलवायु परिवर्तन को दोष देना आसान है। हालांकि मैं वैज्ञानिकों द्वारा इस प्रचंड घटना को बाद में जलवायु परिवर्तन से जोड़ने की किसी भी संभावना से इन्कार नहीं कर रहा हूं, लेकिन हमने जो विनाश देखा है वह दोषपूर्ण विकास नीतियों का परिणाम है जिन्हें जानबूझकर आर्थिक उन्नति के नाम पर आगे बढ़ाया जा रहा है। इसमें मानवीय लालच और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को जोड़ दें और आपके पास यह जानने के सभी कारण मौजूद होंगे कि पहाड़ियां क्यों तबाह हुईं। कुछ लोग इसे मानवजनित कहते हैं लेकिन यह भी उन असल वजहों को धुंधला कर देता है जिनके कारण पर्यावरण को गहरा झटका लगा। थोड़ा अलग तरह से कहें तो, यह अपनी ओर आने वाली शक की सूई से बचने के लिए दोष मढ़ने का एक सरल तरीका है। वास्तव में, हमारे सामने आने वाली प्रत्येक मौसम संबंधी विसंगति का दोष जलवायु परिवर्तन को देना बहुत आसान हो गया है।
फिर भी, भारी बारिश से हुई बड़ी तबाही के कारणों की बात की जाये तो जिस ढंग से मकानों, सड़कों व इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स का निर्माण किया गया उसके परिणामस्वरूप नदियों का प्राकृतिक प्रवाह और जलस्रोत नष्ट हो गये। जहां किसी जमाने में नदियों के पाट थे वहां बहुमंजिला अपार्टमेंट्स बना दिये गये। आज भी मैं ऐसे लोगों को देखता हूं, जो रिहायशी कॉलोनियां बसाने के लिए राज्य सरकारों पर पर्यावरण मानकों को त्यागने का दबाव डालने के लिए जिम्मेदार थे, वे भी बड़ी आसानी से दोष जलवायु पर मढ़ देते हैं। हम अपने चारों ओर जो तबाही देख रहे हैं उसके लाने में अपनी ही भूमिका को बिसरा देते हैं।
अपने दोष दूसरों पर डाल देना आसान सा दस्तूर बन गया है। मिसाल के तौर पर, चंडीगढ़ के निकट उभरते खरड़ कस्बे को ही लीजिये, जिसमें जलस्रोतों व प्राकृतिक नालों के निकास रास्तों को बाधित कर दिया गया है, जिसके चलते बरसातों के दौरान खरड़ एक विस्तृत झील जैसा बन जाता है। मसलन, मिलेनियम सिटी गुड़गांव में 153 जलस्रोतों को अब दोबारा अस्तित्व में नहीं लाया जा सकता है। रियल एस्टेट प्रोजेक्ट्स ने बाढ़ के पानी के निकास के रास्ते को पाट दिया है। जबकि शहर का विस्तार योजना के वक्त निकासी व्यवस्था को कम प्राथमिकता दी जाती है, साथ ही पर्यटकों की बेतहाशा भीड़ का आना भी अपने दुष्प्रभाव छोड़ जाता है। ज्यादातर सीवरेज निकास प्रणाली प्लास्टिक से अवरुद्ध रहती है जिससे गलियां और रिहायशी क्षेत्र के मकान अक्सर डूब जाते हैं।
मुझे संदेह है कि इस सबसे कोई सबक लिया गया हो। परखने के लिए शिमला के विवादास्पद डेवलपमेंट प्लान को लीजिये। क्या कुछ दिनों पूर्व ही हुई निरंतर बारिश द्वारा बरपाये कहर से राज्य सरकार कोई सबक लेगी या फिर पुनर्नवीकृत विनिर्माण गतिविधियों को जारी रखेगी जिसके शहर की 17 हरित पट्टियों को निगलने का अनुमान है? इसी तरह, संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) जिसने, बिना किसी संशोधन के विवादास्पद वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक को इस भारी बारिश की शुरुआत वाले दिन ही पारित कर दिया, क्या पुनर्विचार के लिए इसके मसौदे को वापस मंगवायेगी? आपका अंदाजा भी उतना ही बेहतर होगा, जैसा कि मेरा है। विकास का आख्यान लोगों, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के मुकाबले प्रमुखता प्राप्त कर लेगा। मैं यह पहले भी कह चुका हूं, सब कुछ पहले की ही तरह चलता रहेगा।
देविंदर शर्मा
जब मैं ‘सब कुछ पहले जैसा’ कहता हूं तो मेरा आशय यह नहीं है कि जीवन फिर से सामान्य हो जायेगा। बेशक ऐसा तो होगा ही, लेकिन इससे भी अहम यह है कि हम उन सबकों को भूल गए होंगे जो क्रोधित प्रकृति ने केवल चार दिनों तक पहाड़ों पर लगातार मूसलाधार बारिश के माध्यम से देने की कोशिश की थी। जबकि 60,000 फंसे हुए पर्यटकों को निकाला गया है, फौरी तौर पर करीब 4,000 करोड़ रुपये के नुकसान का अंदाजा है।
रिपोर्ट के मुताबिक, भारी वर्षा से अनगिनत भूस्खलन हुए और सड़कों को नुकसान पहुंचा जिससे करीब 1321 मार्ग अवरुद्ध हो गये, 750 जल परियोजनाएं प्रभावित हुईं और करीब 4500 ट्रांसफॉर्मर बेकार हो गये। उफनती नदियों का रौद्ररूप ऐसा था कि रास्तों पर साइड में खड़ी अनगिनत कारों व अन्य वाहनों के अलावा कई पुल भी बह गये। कई जगहों पर तो पहाड़ों पर जमा कचरा भी नीचे की तरफ बहता देखा गया। निश्चित तौर पर दृश्य विचलित कर देने वाला था।
संक्षेप में, हिमाचल प्रदेश में भारी बारिश और पंजाब, हरियाणा के निचले इलाकों में बसे शहरों, कस्बों और खेतों में बड़े पैमाने पर बाढ़ से निश्चित तौर पर बड़ी तबाही का मंजर है। चार दिन की भारी बारिश में कई शहर व कस्बे पानी के लबालब भरे तालाब जैसे नजर आये। जिनमें कारें डूबी हुई थीं या फिर तैर रही थीं। हम जानते हैं कि यमुना का जलस्तर अब तक का सर्वाधिक था और इसके किनारे पर दिल्ली के निचले इलाकों में बसे लोग हैं। इसके साथ ही पंजाब में कई जगह सेना बुलानी पड़ी। सही-सही नुकसान का अंदाजा पानी उतरने के बाद ही लग सकेगा। पहले ही, 10000 से ज्यादा लोग सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाए जा चुके हैं।
जब मुझसे पूछा गया कि बाढ़ के पीछे क्या कारण लगता है, तो मैंने एक टीवी चैनल से कहा : ‘यह शायद प्रकृति का अपनी नाराजगी व्यक्त करने का तरीका था।’ ‘मैंने ऐसा क्यों सोचा’ के पूरक प्रश्न पर मेरी प्रतिक्रिया थी कि पिछले कुछ वर्षों में हिमाचल प्रदेश में कंक्रीटीकरण के चलते अंधाधुंध विकास हुआ है, जिससे सभी पारिस्थितिक सुरक्षा उपाय ताक पर रखे गये हैं। तेजी से जंगलों के कटान और 4-लेन या 6-लेन राजमार्गों के निर्माण के लिए पहाड़ों में लापरवाही भरे विस्फोटों से, नाजुक पहाड़ियां जर्जर हो गई हैं। हालांकि यह ज्ञात है कि राज्य के सभी 77 ब्लॉक कमजोर और भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील हैं, इसके बावजूद राजमार्गों का निर्माण करते समय सभी तकनीकी मानदंडों को ताक पर रख दिया जाता है। इसके अलावा, 2019 तक, हिमाचल प्रदेश में 153 पनबिजली परियोजनाएं थीं, जिसके परिणामस्वरूप पानी का प्राकृतिक प्रवाह अवरुद्ध होता है और कभी-कभी आने वाली बाढ़ के कारण पानी का मार्ग बदलता है, जिसके चलते और अधिक नुकसान हुआ।
दुर्भाग्यवश, ऐसे समय में जब विकास से जुड़े मुद्दे हावी होकर गूंज रहे हैं, तो पेड़ों के महत्व की बात दबकर रह गयी है। जिस तरह से राजमार्ग निर्माण के लिए पेड़ों को बेरहमी से काटा जाता है, उसकी भी बहुत भारी कीमत चुकानी होती है, लेकिन इसकी कम ही चर्चा की जाती है। जब फ्रेड पियर्स, (पूर्व साइंटिस्ट) ने येल एनवायरनमेंट 360 में एक निबंध में लिखा था कि ‘जंगल का प्रत्येक पेड़ एक फव्वारा है, जो अपनी जड़ों के जरिये जमीन से पानी खींचता है और अपने पत्तों में छिद्रों के माध्यम से जल वाष्प वायुमंडल में छोड़ता है।'- मूल रूप से यह नीति निर्माताओं के लिए सबक होना चाहिए था। जबकि पेड़ों की जड़ें मिट्टी को जकड़े रखती हैं, ऐसे में पेड़ों की तेजी से हो रही कमी के कारण पहाड़ियां भूस्खलन के प्रति संवेदनशील होती जा रही हैं। राजमार्गों के विस्तार और इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए बड़ी संख्या में पेड़ों को काटना बस एक संख्या मात्र बन गई है। भारत में 2021-22 में 43.9 हजार हेक्टेयर प्राथमिक वन गायब हो गये।
लोगों ने यह भी नहीं समझा कि वृक्षों में तापमान को ठंडा रखने की खास क्षमता है, कि एक वृक्ष का वातावरण को शीतल करने का प्रभाव दो एयर कंडीशनरों के समान है। इसलिए जब तापमान बढ़ जाता है तो उन्हीं लोगों को बढ़ी गर्मी से ज्यादा शिकायत होती है जिन्हें विकास के नाम पर वृक्षों के कटान से कोई परहेज नहीं है।
जलवायु परिवर्तन को दोष देना आसान है। हालांकि मैं वैज्ञानिकों द्वारा इस प्रचंड घटना को बाद में जलवायु परिवर्तन से जोड़ने की किसी भी संभावना से इन्कार नहीं कर रहा हूं, लेकिन हमने जो विनाश देखा है वह दोषपूर्ण विकास नीतियों का परिणाम है जिन्हें जानबूझकर आर्थिक उन्नति के नाम पर आगे बढ़ाया जा रहा है। इसमें मानवीय लालच और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को जोड़ दें और आपके पास यह जानने के सभी कारण मौजूद होंगे कि पहाड़ियां क्यों तबाह हुईं। कुछ लोग इसे मानवजनित कहते हैं लेकिन यह भी उन असल वजहों को धुंधला कर देता है जिनके कारण पर्यावरण को गहरा झटका लगा। थोड़ा अलग तरह से कहें तो, यह अपनी ओर आने वाली शक की सूई से बचने के लिए दोष मढ़ने का एक सरल तरीका है। वास्तव में, हमारे सामने आने वाली प्रत्येक मौसम संबंधी विसंगति का दोष जलवायु परिवर्तन को देना बहुत आसान हो गया है।
फिर भी, भारी बारिश से हुई बड़ी तबाही के कारणों की बात की जाये तो जिस ढंग से मकानों, सड़कों व इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स का निर्माण किया गया उसके परिणामस्वरूप नदियों का प्राकृतिक प्रवाह और जलस्रोत नष्ट हो गये। जहां किसी जमाने में नदियों के पाट थे वहां बहुमंजिला अपार्टमेंट्स बना दिये गये। आज भी मैं ऐसे लोगों को देखता हूं, जो रिहायशी कॉलोनियां बसाने के लिए राज्य सरकारों पर पर्यावरण मानकों को त्यागने का दबाव डालने के लिए जिम्मेदार थे, वे भी बड़ी आसानी से दोष जलवायु पर मढ़ देते हैं। हम अपने चारों ओर जो तबाही देख रहे हैं उसके लाने में अपनी ही भूमिका को बिसरा देते हैं।
अपने दोष दूसरों पर डाल देना आसान सा दस्तूर बन गया है। मिसाल के तौर पर, चंडीगढ़ के निकट उभरते खरड़ कस्बे को ही लीजिये, जिसमें जलस्रोतों व प्राकृतिक नालों के निकास रास्तों को बाधित कर दिया गया है, जिसके चलते बरसातों के दौरान खरड़ एक विस्तृत झील जैसा बन जाता है। मसलन, मिलेनियम सिटी गुड़गांव में 153 जलस्रोतों को अब दोबारा अस्तित्व में नहीं लाया जा सकता है। रियल एस्टेट प्रोजेक्ट्स ने बाढ़ के पानी के निकास के रास्ते को पाट दिया है। जबकि शहर का विस्तार योजना के वक्त निकासी व्यवस्था को कम प्राथमिकता दी जाती है, साथ ही पर्यटकों की बेतहाशा भीड़ का आना भी अपने दुष्प्रभाव छोड़ जाता है। ज्यादातर सीवरेज निकास प्रणाली प्लास्टिक से अवरुद्ध रहती है जिससे गलियां और रिहायशी क्षेत्र के मकान अक्सर डूब जाते हैं।
मुझे संदेह है कि इस सबसे कोई सबक लिया गया हो। परखने के लिए शिमला के विवादास्पद डेवलपमेंट प्लान को लीजिये। क्या कुछ दिनों पूर्व ही हुई निरंतर बारिश द्वारा बरपाये कहर से राज्य सरकार कोई सबक लेगी या फिर पुनर्नवीकृत विनिर्माण गतिविधियों को जारी रखेगी जिसके शहर की 17 हरित पट्टियों को निगलने का अनुमान है? इसी तरह, संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) जिसने, बिना किसी संशोधन के विवादास्पद वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक को इस भारी बारिश की शुरुआत वाले दिन ही पारित कर दिया, क्या पुनर्विचार के लिए इसके मसौदे को वापस मंगवायेगी? आपका अंदाजा भी उतना ही बेहतर होगा, जैसा कि मेरा है। विकास का आख्यान लोगों, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के मुकाबले प्रमुखता प्राप्त कर लेगा। मैं यह पहले भी कह चुका हूं, सब कुछ पहले की ही तरह चलता रहेगा।
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लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।
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