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देव दीपावली : देवताओं की कृपा प्राप्त करने का अवसर

06:51 AM Nov 20, 2023 IST

चेतनादित्य आलोक
सनातन धर्म में ‘दीपावली’ के समान ही ‘देव दीपावली’ पर्व का भी बहुत महत्व है। इसीलिए दीपावली की तरह ही इसको भी ‘दीपों का त्योहार’ कहा जाता है। देव दीपावली का यह पावन पर्व प्रत्येक वर्ष दिवाली के ठीक 15 दिन बाद यानी कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है। वैसे तो सनातन धर्म के मानने वाले देश भर में नदियों के किनारे स्नान एवं दीपदान के साथ इस पर्व को बड़े ही धूमधाम से मनाते हैं, परंतु इसका मुख्य आयोजन तो काशी में गंगा नदी के तट पर ही किया जाता है, जहां देशभर से अनुयायी गंगा स्नान एवं दीपदान करने हेतु पहुंचते हैं। मान्यता है कि इस दिन देवता भी काशी की पवित्र भूमि पर उतरते हैं और दीपावली मनाते हैं। यही कारण है कि भक्तगण इस अवसर पर काशी यानी वाराणसी के घाटों को मिट्टी के दीयों से सुसज्जित करते हैं। देव दीपावली के दिन पूरी काशी नगरी एक विराट् उत्सव के प्रकाश और हर्ष-उल्लास में डूब जाती है। ऐसा प्रतीत होता है मानों संपूर्ण काशी ही दिव्यता की रोशनी में नहा रही हो। चारों तरफ भव्यता की अनुभूति होती है। ऐसे में भक्ति और आनंद में डूबा हुआ मन इस प्रकार रम जाता है कि वह काशी में ही रहकर वहां की दिव्य रोशनी और भव्य अनुभूतियों का साक्षी बना रहना चाहता है।

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दीपदान का महत्व

हिंदू धर्मशास्त्रों में देव दीपावली के दिन गंगा स्नान करने के बाद दीपदान करने का बड़ा महत्व बताया गया है। बताया गया है कि इस दिन देवता काशी की पवित्र धरती पर आते हैं और गंगा में स्नान करते हैं। इसीलिए इस दिन गंगा स्नान करने एवं दीपदान करने से देवता प्रसन्न होते हैं और भक्तों पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखते हैं। इसके साथ ही भक्तों को पूरे वर्ष शुभ फल की प्राप्ति भी होती है, जिसके प्रभावस्वरूप उनके सभी पापों का नाश होता है तथा उनको सभी कार्यों में सफलता मिलती है। इस प्रकार देव दीपावली देवताओं की कृपा प्राप्त करने का एक और विशेष अवसर प्रदान करता है।

पौराणिक कथा

शिव पुराण में वर्णन है कि ताड़कासुर का पुत्र त्रिपुरासुर के अत्याचारों से न केवल पृथ्वी पर मनुष्य, बल्कि स्वर्ग में देवतागण पीड़ित थे। दरअसल, त्रिपुरासुर ने तपस्या के बल और प्रताप से सफलतापूर्वक पूरी दुनिया को जीत लिया और तपस्या के बल पर यह वरदान प्राप्त कर लिया था कि उसका अंत तभी हो सकता है, जब कोई उसके द्वारा निर्मित तीन नगरों को एक ही बाण से भेद देगा। ये तीन नगर ‘त्रिपुरा’ के नाम से जाने गये। त्रिपुरासुर राक्षस के अत्याचारों से त्रस्त हो चुके देवताओं ने देवाधिदेव भगवान शिव से रक्षार्थ प्रार्थना की, जिसके बाद भगवान शिव ने एक ही बाण से उसके तीनों नगरों को नष्ट करने के बाद त्रिपुरासुर राक्षस का वध कर दिया। शास्त्रों में उल्लेख है कि जिस दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर राक्षस का वध कर मनुष्यों एवं देवताओं की रक्षा की थी, वह शुभ दिन कार्तिक महीने की शुभ पूर्णिमा तिथि थी। त्रिपुरासुर-वध से सभी देवता अत्यंत प्रसन्न हुए और भगवान शिव के प्रति आभार व्यक्त करने हेतु काशी नगरी में पधारे। इस अवसर पर देवताओं ने संपूर्ण काशी में दीप जलाकर खुशियां मनायी थीं। यही कारण है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन भक्ति-भाव के साथ देव दीपावली मनाने की सदियों पुरानी परंपरा काशी में आज भी कायम है। इस वर्ष 26 नवंबर को शाम के समय यानी प्रदोष काल में 5 बजकर 8 मिनट से 7 बजकर 47 मिनट तक देव दीपावली मनाने का शुभ मुहूर्त है।

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पूजन विधि

इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में गंगा अथवा किसी नदी में स्नान करना चाहिए। यदि संभव न हो तो घर पर ही पानी में गंगाजल डालकर स्नान किया जा सकता है। उसके बाद भगवान शिव एवं श्रीहरि विष्णु आदि देवताओं का ध्यान करते हुए पूजन करना चाहिए। संध्या समय किसी नदी या सरोवर पर जाकर दीपदान करना चाहिए। यदि वहां नहीं जा सकते तो किसी मंदिर में ही दीपदान कर लें। इस अवसर पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार एक, पांच, ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन अथवा 108 आटे के दीये प्रज्वलित कर अर्पित कर सकते हैं। इसके साथ ही अपने घर में एवं घर के पूजा स्थल पर भी दीप प्रज्वलित करने चाहिए।

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