झलक रहे रुख के बावजूद मौजूद यक्ष प्रश्न
ऋतुपर्ण दवे
देश में चंद राज्य ऐसे हैं जहां तेवर, साफगोई, मिजाज और माहौल साफ-साफ दिखते हैं। उनमें एक हरियाणा, बेहद अहम है। यहीं से देश में आयाराम-गयाराम की राजनीति शुरू हुई और इतनी कि एक दिन में कई बार दल बदलने का रिकॉर्ड भी हरियाणा के नाम ही है। जिस हरियाणा में बीते लोकसभा चुनाव में मतदाताओं की खामोशी दिखी और ऐसी कि बड़े-बड़े विश्लेषक भी सही आंकलन नहीं कर पाए। वहीं अब माहौल बहुत साफ दिख रहा है या यूं कहें कि हरियाणा का रुख झलकने लगा है।
हरियाणा में हक की लड़ाई और विरोध की ताकत हमेशा बिना लाग-लपेट दिखती है। इसी से देश के इस छोटे से राज्य की अहमियत अलग झलकती है जिससे राजनीतिक बैरोमीटर का दबाव समझने वालों को आसानी होती है। यही तेवर और कलेवर हरियाणा की खास पहचान हैं। वहां की मिट्टी ही अलग है जो इस छोटे से राज्य ने खेलों, खासकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वो मुकाम बनाया जो देश-दुनिया में हरियाणावी पहचान बना।
खेल भावना और एथलीट बनने के जुनून के साथ फौज में जाने की होड़ ने देश की आबादी के महज 2 फीसद हिस्सेदारी वाले हरियाणा को अलग पहचान दी। यदि इसे आंकड़ों में बदलें तो ऐसा राज्य है जो अब तक जीते ओलंपिक पदों में 30 फीसद और हालिया पेरिस ओलंपिक में 21 फीसद हिस्सेदारी रखता है। पेरिस ओलंपिक 2024 में भारत द्वारा जीते 6 पदकों में से 4 हरियाणा ने दिये।
अब वही हरियाणा खेलों से निकल, विधानसभा चुनाव में देश की राजनीति में नया खेल दिखाने को तैयार है। हरियाणा चुनाव, जाट और गैर-जाट समीकरण पर होते हैं। अभी टिकट बंटने और कटने का दौर जारी है। लेकिन जैसे बगावती तेवरों का भाजपा को सामना करना पड़ रहा है वह पूरे देश में अलग से हैं। अनुशासन की सख्ती और शीर्ष नेतृत्व के इशारों पर चलने वाली भाजपा में जो विरोध, अंतर्कलह, बगावत और इस्तीफों का दौर चल रहा है उससे हर कोई हैरान है। यह भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है। महज 90 सीटों वाले इस राज्य में अभी काफी कुछ दिखना-दिखाना बाकी है।
यहां 40 सीटों पर जाट प्रभाव रखते हैं। 1966 में पंजाब से अलग होकर 33 साल तक इनका राजनीति में वर्चस्व रहा। चौधरी देवी लाल, बंसी लाल, भूपिंदर सिंह हुड्डा लंबे समय तक सत्ता में रहे। गैर-जाट समुदाय से भगवत दयाल शर्मा, राव बीरेंद्र सिंह, बिश्नोई समुदाय से भजन लाल तो पंजाबी समुदाय से मनोहर लाल खट्टर और नायब सिंह सैनी मुख्यमंत्री बने।
वर्ष 2019 में बहुमत से पिछड़ी भाजपा ने 40 सीटें जीतीं तो कांग्रेस 31 पर रुक गई। जजपा ने 10 सीटें जीत ताज भाजपा को पहनाया जो अब विरोध में है। वहीं नए प्रयोग से अनुशासन का नया संदेश देते हुए भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने तब पंजाबी समुदाय के मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया। लेकिन चुनाव से ऐन पहले हवा के रुख को भांपते हुए बड़ी सोशल इंजीनियरिंग की। आनन-फानन में ओबीसी समुदाय के नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया तो प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर ब्राह्मण चेहरा मोहन लाल बडौली को बिठाया। उधर, जाट वोट में सेंधमारी की रणनीति के तहत पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल की बहू किरण चौधरी को न केवल भाजपा में शामिल किया बल्कि राज्यसभा तक पहुंचा, बड़ा दांव खेला। कांग्रेस ने भी ओलंपियन और एथलीटों को न केवल दल में लिया बल्कि पहलवान आंदोलन की प्रमुख विनेश फोगाट को टिकट देकर दूसरी चाल चल दी। बजरंग पुनिया को किसान कांग्रेस की अहम जिम्मेदारी सौंप स्थिति तू डाल-डाल तो मैं पात-पात वाली बना दी।
सतर्क कांग्रेस अपना जनाधार और हाईकमान को रुतबा दिखाने खातिर पसीना बहाती दिखी जरूर, लेकिन गुटबाजी अब तक नहीं थमी। हुड्डा और सैलजा ने अपने-अपने प्रभाव दिखाने की मुहिम के तहत खूब रैलियां, यात्राएं निकालीं। हुड्डा की ‘हरियाणा मांगे हिसाब’ तो सैलजा की ‘जनसंदेश यात्रा’ से कांग्रेस के प्रति लोगों का झुकाव और माहौल तो दिखा लेकिन असल में ये कहीं न कहीं नतीजों से पहले मुख्यमंत्री पद की खातिर जोर आजमाइश से ज्यादा नहीं थीं।
हवा का रुख भांपते हुए भाजपा को एमएसपी, किसान आन्दोलन, अग्निवीर योजना का असर, महिला पहलवानों की बगावत, जातीय जनगणना, रोजगार गारंटी का मुद्दा सताने लगा। मुख्यमंत्री बदले जाने के बावजूद धरातल पर दिख रही एंटी इन्कंबेंसी का लाभ उठाने के बजाय कांग्रेस गुटों में ही उलझी है तो गठबंधन धर्म की दुहाई पर ‘आप’ के साथ सीट शेयरिंग पर भी सहमति न हो पाना बड़ी मुसीबत बनेगी। ऐसे में भूपिन्दर-दीपेन्दर हुड्डा बनाम कुमारी सैलजा के बीच नहीं थमती गुटबाजी से पहले ही इंडिया गठबंधन में गांठें खुलेंगी या बढ़ेंगी की चर्चाएं शुरू हो गईं। 22 जिलों वाला उत्तरी भारत का बेहद निराला और खुलकर बोलने वाला राज्य अहीरवाल, जाटलैंड और उत्तरी हरियाणा इलाकों में बंटा है।
चुनाव से पहले हरियाणा ही अब वो राज्य है जो साफ संकेत देता है। झलक रहे रुख के बावजूद हरियाणा में भाजपा-कांग्रेस में सब कुछ ठीक हो जाएगा, लगता नहीं। अब ताज किस के सिर होगा तीसरी बार भाजपा या फिर कांग्रेस के, देखने लायक होगा? इंतजार कीजिए, आठ अक्तूबर अभी दूर है।