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संतान के सुखी-संस्कारी जीवन की आकांक्षा

07:29 AM Oct 31, 2023 IST
संतान के सुखी संस्कारी जीवन की आकांक्षा
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डॉ. मोनिका शर्मा

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बच्चों की कुशल-कामना हर मां के लिए सबसे बढ़कर होती है। बच्चों की सुरक्षा और सबलता के लिए माताओं का मन सबसे ज्यादा चिंतित रहता है। यह आत्मीय जुड़ाव भारतीय परिवारों में सबसे ज्यादा देखने को मिलता है। बहुत सी धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व की परम्पराएं भी पारिवारिक सम्बन्धों के इस जुड़ाव को पोसने का माध्यम रही हैं। अहोई अष्टमी का व्रत ऐसा ही एक अनुष्ठान है, जो पूजन और उपवास के माध्यम से अपने बच्चों की कुशलता का वरदान मांगने से जुड़ा है। पूजन-अर्चन की इस परम्परा में हर संकट से अपने बच्चों के बचाव की चिंता भी है और उनके भविष्य की बेहतरी से जुड़ा चिंतन भी।

स्वस्थ-सुखी जीवन की आशीष

अहोई अष्टमी का व्रत माताएं अपने बच्चों के अच्छे स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए करती हैं। अपनी नई पीढ़ी के सुखी जीवन के लिए अहोई माता से प्रार्थना करती हैं। इस अनुष्ठान से हर पक्ष पर बच्चों की भलाई का भाव जुड़ा है। यों भी माताओं के लिए बच्चों के आयुष्य की कामना से बढ़कर कुछ नहीं होता। बच्चों की पहली शिक्षक कही जाने वाली माताएं परिवार की अगली पीढ़ी के संस्कारों और सुरक्षा के लिए ही सबसे ज्यादा चिंतित रहती हैं। प्यार-दुलार के साथ उनकी सोच-समझ और व्यवहार की नींव मजबूत करने वाली माताओं का यही समर्पण हमारी पारिवारिक व्यवस्था की बुनियाद भी पक्की करता है। ऐसे में बच्चों के लिए सुख, समृद्धि और अच्छी सेहत के लिए पूजा-प्रार्थना करने का यह भाव मां के मन को बच्चों से और गहराई से जोड़ता है। बच्चों के मन-जीवन से जुड़ी अनगिनत चिंताओं से पार पाने के लिए माताएं ईश्वरीय स्तुति का आधार लेती हैं। बहुत श्रद्धा और प्रेम से यह व्रत कर बच्चों की उन्नति और दीर्घायु के लिए प्रार्थना करती हैं। अहोई माता से आशीर्वाद मांगती हैं कि उनके बच्चों के सभी स्वप्न पूरे हों, भविष्य उज्ज्वल हो और जीवन सुरक्षित रहे।

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संरक्षण का साझा भाव

माताओं के लिए अत्यधिक महत्व रखने वाला अहोई अष्टमी का व्रत कार्तिक महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को होता है। अनुष्ठान, उपवास और पूजन अर्चन कर बच्चों की बेहतरी के लिए माता अहोई से आशीर्वाद मांगा जाता है। धार्मिक आध्यात्मिक संदर्भों में शिव परिवार को बहुत प्यारा और स्नेहपूर्ण सम्बन्धों वाला परिवार माना जाता है। अहोई माता देवी पार्वती का ही अवतार हैं जिन्हें इस दिन बच्चों की रक्षक और कल्याण करने वाली मां के रूप में पूजा जाता है। देश के कई क्षेत्रों में तारे और कई जगह चंद्रमा को देखकर यह व्रत खोला जाता है। माताएं एकत्रित होकर व्रत कथा सुनती हैं। ईश्वर के प्रति गहरे विश्वास और बच्चों के प्रति विशेष जुड़ाव का भाव लिए यह व्रत सामाजिकता के भाव को भी बढ़ाता है। अनुष्ठान के लिए आस-पड़ोस के परिवारों की माताएं एकत्रित होती हैं। अपने ही नहीं, एक-दूजे के बच्चों को भी आशीष देती हैं। अहोई माता से हर बच्चे के लिए आशीर्वाद मांगती हैं। उपवास के बाद व्रत में बने विशेष व्यंजन आस-पड़ोस के परिवारों सगे-संबंधियों के यहां प्रसाद स्वरूप भेजे जाते हैं। कहीं परिवारजन मिलकर भोजन करते हैं तो कहीं घर से दूर रह रहे बच्चों को भी अपनी मां और उनका ममत्व याद आ जाता है।

मान्यताओं के बदलते मायने

परम्परागत रूप से अहोई अष्टमी का व्रत विषेश रूप से बेटे की मां के लिए ही हुआ करता था। इस व्रत में अहोई माता से पुत्र के संरक्षण और सुख के लिए प्रार्थना करने की रीत रही है। लेकिन अब इस रीत के रंग बदल गए हैं। अब माताएं बेटे-बेटी का भेद किए बिना अपने बच्चों की खुशहाली के लिए यह अनुष्ठान करती हैं। उनकी रक्षा करने के लिए माता अहोई से प्रार्थना करती हैं। हमारी मान्यताओं का यह सुखद-सुंदर रूप है कि समय के साथ उनमें सार्थक बदलाव आ रहे हैं। संतान के निमित्त किए जाने वाले इस व्रत अनुष्ठान में भी अब कोई भेदभाव नहीं दिखता। माताओं का मन बेटे- बेटी दोनों के ही जीवन मार्ग पर आने वाली हर बाधा को दूर करने की प्रार्थना करता है। उन्हें हर कष्ट से बचाने का वर मांगता है। बच्चों को सन्मार्ग पर चलने की समझ देने का आशीर्वाद चाहता है। नई पीढ़ी की कुशलता चाहने के इस भाव के साथ आधुनिक सोच का जुड़ जाना एक बड़ा बदलाव है। अब बेटे और बेटी में अंतर न करते हुए माताएं, दोनों ही संतानों की मंगलकामना करती हैं। संतान के लिए सौभाग्य और आरोग्य मांगने का यह भाव पारिवारिक लगाव को भी सुदृढ़ करता है।

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