मानसून की विदाई
यह हकीकत है कि तमाम वैज्ञानिक उन्नति व सिंचाई के साधन विकसित होने के बावजूद मानसून आज भी भारतीय उपमहाद्वीप में जीवनदायी बना हुआ है। सदियों से देश का किसान बेसब्री से मानसून की राह तकते हुए आकाश में काले बादलों की प्रतीक्षा करता रहता है। सच्चाई तो यही है कि खेती में बरकत मानसूनी बारिश से ही आती है। जहां एक ओर बिजली की बचत होती है वहीं किसान की कृषि लागत भी कम होती है। भारतीय मौसम विभाग ने बाकायदा सूचना जारी की है कि दक्षिण-पश्चिम मानसून अब लौट रहा है। राजस्थान के कुछ हिस्से से वह चला भी गया। यूं तो इसकी वापसी की सामान्य तारीख 17 सितंबर है, मगर इस बार यह आठ दिन देरी से वापस लौट रहा है। आम आदमी बारिश के मिजाज देखकर यही सोचता होगा कि इस बार जमकर बारिश हुई है, लेकिन बारिश का औसत बताता है कि इस बार सामान्य से कुछ कम बारिश हुई है। मौसम विभाग के अनुसार इस बार अब तक 780.3 मिमी बारिश हुई है। जबकि सामान्य बारिश 832.4 मिमी मानी जाती है। बहरहाल, काले मेघों की वापसी का सिलसिला शुरू हो गया है। हिमाचल, उत्तराखंड आदि पर्वतीय राज्यों में दक्षिण-पश्चिम मानसून इस बार जमकर बरसा है। खासकर हिमाचल में बारिश का रौद्र देखने को मिला और भूस्खलन व बाढ़ में जन-धन की व्यापक क्षति हुई। इस बार मानसून तेरहवीं बार अपने निर्धारित समय से देरी से वापस लौट रहा है। वैसे तो मानसून का देर तक सक्रिय रहना खेती के लिये लाभदायक ही होता है। खासकर उत्तर-पश्चिम भारत में मानसूनी बारिश का रबी की फसल पर सकारात्मक असर देखने को मिलता है। दरअसल, आमतौर पर दक्षिण-पश्चिम मानसून एक जून तक केरल में दस्तक दे देता है। फिर सामान्यत: आठ जुलाई तक पूरे देश को भिगोने लगता है। वहीं 17 सितंबर के नजदीक उत्तर-पश्चिम भारत से पीछे हटना शुरू कर देता है। फिर मध्य अक्तूबर तक मानसून की लगभग पूरी विदाई हो जाती है।
वैसे हम भारतीयों का सौभाग्य है कि हमें सर्दी, गर्मी व बरसात के मौसम का पर्याप्त सुख हासिल होता है। एक साल में ही देश में अलग-अलग मौसमों का अहसास किया जा सकता है। एक ओर जहां कुछ इलाकों से मानसून की विदाई हो रही है तो कुछ राज्यों में बारिश होने की बात कही जा रही है। वहीं देश में मानसून की विदाई के बीच कश्मीर में बर्फबारी होने की खबरें हैं। लद्दाख में भी बर्फबारी की खबरें हैं। हिमाचल के बारे में कहा जा रहा है कि वहां मानसून की विदाई हो चुकी है और अगले कुछ दिनों में खूब धूप खिलेगी। जाहिर है तापमान में वृद्धि होगी। लेकिन एक हकीकत यह भी है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते बारिश के पैटर्न में भी बदलाव आया है। पहाड़ी राज्यों में भूस्खलन व तबाही का मंजर बताता है कि बारिश का ज्यादा पानी कम समय में बरस जाता है। जिसके चलते बादल फटने और भूस्खलन की घटनाएं भी बढ़ी हैं। मौसम विभाग कह रहा है कि इस बार छह फीसदी पानी कम बरसा। लेकिन हिमाचल व उत्तराखंड में अतिवृष्टि वाले इलाके के लोग कैसे विश्वास करेंगे कि इस बार कम बारिश हुई है। दरअसल, बारिश आम नागरिकों से लेकर सत्ताधीशों को संदेश देने भी आती हैं। जहां बारिश स्थानीय प्रशासन की साफ-सफाई व नदी-नालों की देखरेख का इम्तिहान लेती है, वहीं निर्माण में हुए भ्रष्टाचार को भी उजागर करती है। आम नागरिकों लिये बारिश का संदेश होता है कि जल निकासी सुचारू बनाये रखना हर नागरिक की भी जिम्मेदारी है। हर नागरिक का दायित्व है कि भूमि के कटाव को रोकने के लिये पेड़ काटे नहीं बल्कि खूब लगाए जाएं। नीति-नियंताओं को यह सबक कि पहाड़ों पर फोर-लेन का फार्मूला नहीं चलेगा। पहाड़ का विकास पहाड़ के मिजाज के अनुसार होना चाहिए। हिमाचल में इस बरसात में बहुमंजिला इमारतों का जमींदोज होना बता गया कि हमें भवन निर्माण में अपने पुरखों के अनुभवों से सबक लेना चाहिए। ग्लोबल वार्मिंग के चलते बारिश का मिजाज बदल रहा है, नीति-नियंताओं व लोगों को भी इसके लिये तैयार रहना होगा।