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नेतृत्व की शालीनता से ही समृद्ध लोकतंत्र

06:16 AM Jul 10, 2024 IST
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विश्वनाथ सचदेव
हमारा भारत दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे पुराना जनतांत्रिक देश है। हमें किसी से जनतांत्रिक परंपराएं सीखने की आवश्यकता नहीं है। जनतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं हमारे देश में। लेकिन इसके बावजूद कई बार ऐसा लगता है कि हमारे नेता या तो जनतांत्रिक परंपराओं को निभा नहीं रहे या फिर उन परंपराओं को समझ नहीं रहे। अब इन्हीं चुनाव की बात करें- मतदाता ने अपना निर्णय स्पष्ट दिया है : एनडीए गठबंधन सरकार बनाये और इंडिया गठबंधन विपक्ष का दायित्व निभाये। इसके बाद कोई भ्रम नहीं रहना चाहिए, लेकिन अठारहवीं लोकसभा के पहले ही अधिवेशन में संसद के दोनों सदनों में जिस तरह का व्यवहार हमारे सांसदों का रहा है, वह सवालिया निशान तो लगाता ही है कि जनतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं के प्रति हम कितने सजग हैं?
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद-प्रस्ताव को लेकर जिस तरह की बहस दोनों सदनों में देखने-सुनने को मिली है, वह इस संदर्भ में आश्वस्त करने वाली तो नहीं ही है। दोनों सदनों में पीठासीन अधिकारियों ने विपक्ष को खरी-खोटी सुनायी। दोनों सदनों में नेता-विपक्ष के वक्तव्यों में से कुछ शब्द हटा दिये गये अर्थात‍् रिकॉर्ड में वे शब्द नहीं रहेंगे। असंसदीय शब्दों के नाम पर होने वाली यह कवायद अब इस अर्थ में भी बेमानी हो चुकी है कि देश की जनता वह सब देख-सुन चुकी होती है जिसे पीठासीन अधिकारी असंसदीय घोषित करके न सुनने और न देखने लायक बता देते हैं। कथित असंसदीय भाषा से कहीं अधिक असंसदीय तो बहस के दौरान कुछ सांसदों का व्यवहार हो जाता है। सदस्यों को निष्कासित करके ऐसे व्यवहार को उजागर तो किया जाता है, पर यह प्रक्रिया इस हद तक अतार्किक हो जाती है कि पिछली संसद में से सौ से अधिक सांसदों का निष्कासन किया गया! लोकसभा के स्पीकर और राज्यसभा के सभापति ने यह निर्णय अपने विवेक से किया होगा, इस पर सवाल तो उठता ही है कि इस तरह की कार्रवाई को कितना जनतांत्रिक कहा जा सकता है?
सवाल यह भी उठता है कि आखिर सांसदों या विधायकों का सदन में, और सदन के बाहर भी, व्यवहार कैसा होना चाहिए?
इस संदर्भ में मुझे ब्रिटेन के नए और पिछले प्रधानमंत्री के भाषण याद आ रहे हैं। हाल के चुनाव में ब्रिटेन के मतदाता ने सरकार पलट दी है। कंजरवेटिव पार्टी का शासन मतदाता ने नकार दिया है और लेबर पार्टी को सरकार बनाने का अवसर दिया गया है। भारतीय मूल के ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक और ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री स्टार्मर्स ने इस अवसर पर जो भाषण दिए हैं उनमें ऐसा बहुत कुछ है जो बताता है कि राजनेताओं को एक-दूसरे के प्रति किस तरह का व्यवहार करना चाहिए। अपनी हार को स्वीकार करते हुए ऋषि सुनक ने स्पष्ट शब्दों में कहा है, वे इस हार का दायित्व लेते हैं और नयी सरकार को ब्रिटेन के हित में काम करने में हर उचित सहयोग देंगे। उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा कि ‘नये प्रधानमंत्री की सफलता हम सब की सफलता होगी। वे जन-हित के लिए काम करने वाले ऐसे उत्साहित व्यक्ति हैं, जिनका मैं सम्मान करता हूं।’ ऐसा ही सम्मान प्रधानमंत्री चुने जाने वाले स्टार्मर्स ने भी ऋषि सुनक के प्रति व्यक्त किया। उन्होंने कहा, ‘मैं निवर्तमान प्रधानमंत्री को उनकी उपलब्धियों के लिए बधाई देना चाहता हूं। वे हमारे देश के पहले ब्रिटिश एशियाई प्रधानमंत्री थे। इस नाते उन्हें कुछ कर पाने के लिए जो अतिरिक्त प्रयास और मेहनत करनी पड़ी उसे कम करके नहीं आंका जा सकता। हम उसकी प्रशंसा करते हैं। हम उनकी निष्ठा और मेहनत को भी स्वीकारते-समझते हैं।’
ये शब्द ब्रिटेन के उन दो राजनेताओं के हैं जो कल तक चुनावी-मैदान में एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े थे। ऐसा नहीं है कि वहां एक-दूसरे पर राजनेता आरोप-प्रत्यारोप नहीं लगाते। आरोप सब जगह लगते हैं। कुछ कटुता भी होती होगी। लेकिन नेतृत्व से जिस तरह की शालीनता की अपेक्षा होती है, कम से कम इस समय तो उनके व्यवहार में वह स्पष्ट दिख रही है।
ऐसा नहीं है कि हमारे यहां विभिन्न दलों के राजनेताओं के बीच पारस्परिक संबंध नहीं होते। ढेरों उदाहरण हैं इस आशय के जिनसे यह पता चलता है कि नीतिगत विरोध का अर्थ दुश्मनी नहीं होता। लेकिन ऐसे भी उदाहरण कम नहीं हैं जो बताते हैं कि या तो हमारे नेताओं में पारस्परिक संबंधों वाली परिपक्वता नहीं है या फिर यह कि नेताओं को लगता है कि संबंधों की मधुरता का कोई लक्षण दिख गया तो उनके राजनीतिक हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ जायेगा। चुनावी-सभाओं में तो नेताओं के विरोधी तेवर अक्सर दिख जाते हैं, और एक सीमा तक उनकी ‘आवश्यकता’ को समझा भी जा सकता है, लेकिन संसद और राज्यों की विधानसभाओं में जब राजनीतिक विरोध शालीनता की सीमाएं लांघता दिखता है तो हैरानी भी होती है और दुख भी होता है।
यह समझना आसान नहीं है कि देश के 15वें प्रधानमंत्री पहले प्रधानमंत्री को लेकर असहज क्यों दिखते हैं? यह समझना भी मुश्किल है कि संसद के सदनों में पीठासीन अधिकारी डंडा लेकर पढ़ाई करवाने वाले अध्यापक की तरह व्यवहार करना ज़रूरी क्यों समझते हैं। सदस्यों के कथित अनुचित व्यवहार को रेखांकित करने के लिए उन्हें जिस तरह डांटा जाता है वह दोनों ही पक्षों की कमज़ोरी उजागर करता है। विधायकों और सांसदों का कहा-किया देश की जनता के लिए एक उदाहरण होता है। सदन की मर्यादाओं का पालन हर हालत में होना चाहिए और इस बात को नहीं भुलाया जाना चाहिए कि राजनीतिक विरोध का मतलब कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं होती। जनता अपने प्रतिनिधि चुनकर सदनों में भेजती है, जिनसे यह अपेक्षा रहती है कि वह जन-हित के कार्य करेंगे। उनके नाटकीय भाषण और अनावश्यक उत्तेजना उनकी ताकत को नहीं, उनकी कमज़ोरी को ही सामने लाते हैं।
राजनीतिक विरोधियों को इस बात को हमेशा ध्यान में रखना होगा कि एक-दूसरे का सम्मान करके ही वे व्यवहार की शालीनता को बनाये रख सकते हैं। बशीर बद्र का एक शे’र है ‘दुश्मनी जम कर करो, लेकिन ये गुंजाइश रहे/ फिर कभी हम दोस्त बन जाएं तो शर्मिंदा न हों।’ मुझे लगता है हमारे राजनेताओं को यह बात याद रखने की आवश्यकता है। एक बात और, जो जितना बड़ा नेता है, उससे अपेक्षाएं भी उतनी ही बड़ी होती हैं। हमारे नेताओं को इन अपेक्षाओं पर खरा उतरना ही होगा। सवाल उनकी कथित शान का नहीं, उन मतदाताओं की इज्जत का है जिन्होंने उन नेताओं को अपना प्रतिनिधि चुना है।
बहस के दौरान अपने-अपने मत को मजबूती से रखने का मतलब एक-दूसरे को भला-बुरा कहना नहीं होता। और अपनी बात को रखने का मतलब यह नहीं होता कि दूसरे की बात सामने आ ही न सके। वाल्तेयर ने कहा था, ‘हो सकता है मैं आपकी बात से सहमत न होऊं, पर अपनी बात रखने के आपके अधिकार की रक्षा मैं अपनी अंतिम सांस तक करूंगा।’ महान दार्शनिक का यह वाक्य हमारे राजनेताओं को हमेशा याद रहना चाहिए– तभी वे जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप आचरण कर पाएंगे। तर्कातीत विरोध अंधा होता है, हमें विवेकपूर्ण विरोध को अपनी राजनीति का ‘हथियार’ बनाना होगा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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