देश की चेतना भी झकझोरे विलंबित न्याय
विश्वनाथ सचदेव
बयालीस साल पहले की बात है। उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले के एक छोटे से गांव साधुपूरा में एक मां की आंखों के सामने उसके तीन बच्चों की गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। हत्यारे पकड़े गये थे। मुकदमा भी चला। पर आरोपियों को सज़ा देने में बयालीस साल लग गये। तीनों हत्यारों में से दो की मौत तो मुकदमा चलने के दौरान ही हो गयी थी। तीसरे को अब सज़ा मिली है! उम्रकैद की सज़ा। बच्चों पर गोली चलाने वाला गंगा दयाल अब नब्बे वर्ष का हो चुका है। पता नहीं कितने साल जेल में रहेगा। रहेगा भी या नहीं। आंखों के सामने बच्चों को गोली से तड़पते हुए मरता देखने वाली अभागी मां प्रेमवती भी अब नब्बे साल की है। तीनों गोली चलाने वाले नृशंस अपराधी तब यह कह कर घटनास्थल से चले गये थे कि ‘चलो, काम खत्म हुआ!’
तब भले ही उन अपराधियों का काम खत्म हो गया हो, पर नब्बे वर्षीय मां को न्याय मिलने का काम अब भी खत्म नहीं हुआ है। यह सही है कि तीन हत्यारों में से जीवित बचे एक हत्यारे को न्यायालय ने उम्रकैद की सज़ा सुनायी है, पर घटना के बयालीस साल बाद मिली इस सज़ा को क्या सचमुच सजा कहा जा सकता है? और क्या यह विलंब से मिला न्याय सचमुच न्याय कहा जा सकता है? नहीं, न यह सज़ा पूरी है और न यह न्याय।
सच बात तो यह है कि किसी भी मामले में न्याय मिलने में इतना विलंब होने का मतलब हमारी पूरी न्याय-व्यवस्था के औचित्य पर एक सवालिया निशान लगना है। यह सवाल सिर्फ हमारी न्याय- व्यवस्था पर ही नहीं लगा। जब हम यह देखते हैं कि बयालीस साल बाद में मिले इस न्याय के औचित्य को लेकर देश में कहीं कोई हलचल नहीं है तो समाज की संवेदनशीलता भी सवालों के घेरे में आ जाती है। इस संदर्भ में मीडिया की उदासीनता भी परेशान करने वाली है। उस दिन आठ अखबारों में से सिर्फ एक अखबार में ‘विलंबित न्याय’ का यह समाचार मुझे दिखा था। न ही, किसी समाचार-चैनल ने इस विषय पर बहस करने की आवश्यकता महसूस की। सोच रहा हूं यह मामला यदि किसी कथित वीआईपी से जुड़ा होता तब भी क्या मीडिया का यही रुख होता? टीआरपी के आधार पर समाचारों की महत्ता की नाप-जोख करने वाले हमारे मीडिया को साधुपूरा के उन तीन बच्चों की नृशंस हत्या उद्वेलित नहीं करती है। होना तो यह चाहिए था कि विलंबित न्याय का यह कांड देश की चेतना को झकझोरते, पूछा जाता कि किसी को भी न्याय मिलने में इतना विलंब क्यों होना चाहिए? क्यों बरसों बरस लग जाते हैं, किसी को न्याय मिलने में? क्यों दशकों तक लंबित पड़े रहते हैं न्यायालयों के मुकदमे? क्या इसीलिए अपराधी को अपराध करते हुए डर नहीं लगता कि बरसों बाद यदि सज़ा मिली भी तो उच्चतम न्यायालय तक पहुंचते-पहुंचते जिंदगी कट जायेगी?
हमारी अदालतों में लंबित मामलों की संख्या करोड़ों में है। वर्ष 2021 का एक आंकड़ा मेरे सामने है। इसके अनुसार उस वर्ष साढ़े चार करोड़ मामले हमारी अदालतों में लंबित थे। दो वर्ष पूर्व 2019 में यह संख्या सवा तीन करोड़ थी। इसका अर्थ है एक साल में अदालतों में लंबित मामलों में लगभग सवा करोड़ बढ़ गयी। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में आज हर मिनट 23 मामले लंबित की सूची में जुड़ जाते हैं! आंकड़े यह भी बताते हैं कि 2022 में उच्चतम न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या 71411 थी!
हमारी न्याय व्यवस्था इस आधार पर टिकी है कि सौ अपराधी भले ही छूट जाएं, पर एक भी निरपराध को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए। ग़लत नहीं है यह आधार, पर यह देखना भी तो ज़रूरी है कि बयालीस साल तक कोई अपराधी हमारी न्याय-प्रणाली की कमियों का लाभ न उठाता रहे। निकट अतीत के ही उदाहरण लें। दिल्ली के ‘उपहार’ सिनेमा कांड में अठारह साल लग गये थे अपराधियों को सज़ा मिलने में। राजधानी दिल्ली के ही ‘निर्भया-कांड’ में अपराधियों को सज़ा देने में आठ साल लग गये थे।
सवाल उठता है कि न्याय मिलने में इतना समय क्यों लगता है? पहला उत्तर तो यही है कि हमारी न्याय-प्रणाली ही कुछ इस तरह की है कि निरपराधियों को बचाने की प्रक्रिया में अपराधी भी लाभ उठा लेते हैं। दूसरा उत्तर हमारी अदालतों में न्यायाधीशों की संख्या का आवश्यकता से कम होना है। लेकिन यह दोनों कारण ऐसे नहीं हैं जिन्हें दूर न किया जा सके। लंबित मामलों की बढ़ती संख्या और न्यायालय में मिलने वाला विलंबित न्याय वर्षों से विचार-विमर्श का विषय रहा है। कई समितियां गठित हो चुकी हैं इस समस्या के समाधान के लिए। पर समस्या है कि सुलझ ही नहीं रही। विलंबित न्याय की यह समस्या अति गंभीर है, इसका समाधान होना ही चाहिए और शीघ्र होना चाहिए यह समाधान। यह आंकड़ा भयभीत करने वाला है कि आज जितने प्रकरण न्यायालयों में लंबित हैं यदि उनमें और न जुड़ें, तब भी, इन्हें वर्तमान गति से निपटाने में तीन सौ साल लग जाएंगे!
इस स्थिति को न्याय का नकार ही कहा जा सकता है। साधुपूरा गांव के तीन दलित बच्चों की हत्या के अपराधियों को सज़ा मिलने के बावजूद इसे न्याय नहीं कहा जा सकता। इस तरह का विलंब भी अपराधियों को अपराध करने के लिए प्रोत्साहित करता है। वे जानते हैं, अदालतों में इतना समय लग जायेगा कि शायद जिंदगी ही कट जाए। फिर जो जितना समर्थ होता है वह स्वयं को उतना ही सुरक्षित महसूस करता है। वह आश्वस्त रहता है कि उसके वकील (पढ़िए उसका पैसा) उसे बचा लेंगे। यह स्थिति खतरनाक है। अन्याय को बढ़ावा देने वाली है। मार्टिन लूथर किंग ने कहा था, ‘अन्याय का कहीं भी होना हर जगह न्याय के लिए खतरा है’ आज इस खतरे को समझने की आवश्यकता है। विलंबित न्याय ऐसे ही एक खतरे का नाम है।
साधुपूरा के बच्चों की हत्या करने वाले दबंग जाति के लोग आज भी धमकी देते हैं कि ‘भूल गये क्या वो दिन?’ यह पांच शब्द भले ही एक धमकी हों, पर सच बात यह है कि साधुपूरा का यह कांड भुलाने लायक नहीं है। इसे याद रखना ज़रूरी है ताकि अन्याय के विरोध में खड़ा होने की याद बनी रहे, ताकि समय पर न्याय मिलने की उम्मीद बनी रहे। न्याय पाने के लिए आम आदमी की आखिरी उम्मीद है न्यायपालिका। यह उम्मीद बनी रहनी चाहिए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।