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शैतान की हार

06:40 AM Nov 26, 2023 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

जसविंदर शर्मा
पहले-पहल उसका नाम भोपाल सिंह पढ़कर मुझे हैरानी हुई थी।
मैंने सोचा था कि शायद वह भोपाल में पैदा हुआ। इतने बड़े ऑ6फिस में लोगों को उनके नाम से याद रखना लगभग मुश्किल ही होता है जब तक कि उनके नाम कुछ अजीब न हों। हम लोग उनके चेहरे-मोहरे या हाव-भाव से ज्यादा याद रख पाते हैं। एक-दूसरे से अन्य विवरण पूछकर काम चला लेते हैं मसलन, अच्छा वही जिसकी खिचड़ी दाढ़ी है, वह जो हॉकी का खिलाड़ी है या वह जिसकी मिसेज भी अपने ऑफिस में है।
भोपाल सिंह की मैंने आज तक शक्ल नहीं देखी थी। मन में एक उत्सुकता थी उससे मिलने की। इधर जब से मैं इस ब्रांच में आया था हर कोई उसके बारे में कुछ न कुछ अटपटा ही बता जाता।
भोपाल सिंह के अनुभाग अधिकारी से बात हुई तो उसने बताया कि साहब ऐसे लोगों से फासला बनाकर ही रखें तो ही ठीक है। सिरफिरा खड़ूस आदमी है, हर वक्त खुन्नस में रहता है क्या पता कब गाली बक दे। बहुत चंट-चालाक आदमी है। हर वक्त मोबाइल कान से सटाये रहता है। कोई काम बताओ तो सटीक बहाना बनाकर निकल जाएगा कि आज तो मिसेज को अस्पताल में दिखाना है या बेटे का जन्मदिन है या घर में लकड़ी का काम चल रहा है। मगर अगले दिन सबसे पहले आकर काम किसी तरह खत्म करके ये जा और वो जा।
पूरा दिन भोपाल सिंह कहां रहता है, लोगबाग कहने लगे कि सर, कोई न कोई प्राइवेट धंधा पीटता होगा।
दूसरा बोला, किसी लौंडिया के चक्कर में रहता है तभी तो हर वक्त मोबाइल से चिपका रहता है। बाप अफसर था, सही वक्त पर इस शहर में कोठी बना गया। भोपाल सिंह की बीवी बैंक में है। इससे ज्यादा पगार लेती है। न जाने कहां-कहां मुंह मारता फिरता है सांड की तरह खुला घूमता है सारे ऑफिस में। पन्द्रह सालों से बड़े-बड़े सख्त अफसर आए, मगर भोपाल सिंह की सजधज व शान वैसी ही है।
एक अन्य ने शक जाहिर किया, ‘जनाब कोई नशे-वशे का चक्कर है। बचपन से इस लाइन में है। अफसर डरते हैं। सबको अपनी इज्जत प्यारी है। कोई पंगा नहीं लेता उससे। क्या फायदा, यह तो चुरुट चढ़ाकर मस्त हो जाएगा मगर शरीफ आदमी इसे ठीक करते-करते अपना मानसिक संतुलन खो बैठेगा।’
अब भोपाल सिंह मिले तो उससे पूछा जाए कि हर वक्त ऑफिस से भागने के पीछे क्या वजह है।
अगले दिन मैं जल्दी ऑफिस आ गया। ब्रांच अधिकारी होने के नाते मैंने भोपाल सिंह के अनुभाग का हाजिरी रजिस्टर अपने पास रखवा लिया। भोपाल सिंह मेरे केबिन में आया तो मैंने बिठा लिया।
सख्त लहजे में मैंने पूछा, ‘तुम्हारी शिकायत मिली है कि तुम अपनी सीट पर पूरा दिन बैठते ही नहीं। हाजिरी लगाकर भाग जाते हो।’
‘सर, मेरे काम की कोई शिकायत...।’
‘काम के साथ सीट पर बैठना भी तो चाहिए।’
‘मैं मानता हूं सर मगर मैं मजबूर हूं।’
‘ऐसी क्या मजबूरी है तुम्हारी।’
‘सर, बहुत लम्बी कहानी है।’
‘कुछ तो पता चले।’
‘सर, शायद आप नहीं जानते कि जवानी में मुझे नशा करने की आदत पड़ गई थी।’
‘भोपाल, अब तो तुम परिवारवाले हो। अब यह सब क्यूं करते हो?’
‘सर पूरी बात तो सुनिये, अब मैं यह सब छोड़ चुका हूं।’
‘तो फिर क्या परेशानी है भाई।’
‘आजकल मैं उन नौजवानों की मदद करता हूं जो इस भयानक लत से अपना पीछा छुड़ाना चाहते हैं। ‘प्रयास’ नाम की संस्था है हमारी, जो बिना किसी सरकारी मदद अपना काम करती है।’
फिर तो भोपाल सिंह ने ही बोलना जारी रखा, ‘इस संस्था के प्रति मैं बहुत अहसानमंद हूं जिसने यह लत छुड़ाने में मेरी मदद की। वह दिन कितना खुशकिस्मत था जब मेरा एक दोस्त मुझे इस संस्था में लेकर आया था। शुरू में मुझे लगा था कि ये सब बेकार के चोंचले हैं मगर धीरे-धीरे उन्होंने मेरी इच्छाशक्ति को मजबूत बना ही दिया। अब मैं नार्मल जीवन जी रहा हूं।’
‘उससे पहले, सर मुझमें और जानवर में कोई अन्तर नहीं था। बात बीस साल पुरानी है। मेरे पिता जी जिला खेल अधिकारी थे। शहर में अच्छी कोठी है हमारी। मेरा खेलों की तरफ अच्छा झुकाव था। गेम लगाकर हम यार-दोस्त कालेज की कैंटीन में नाश्ता लेते थे। एक सुबह मेरे पिताजी उस कैंटीन में तमतमाते हुए आए। मेरे हाथ में एक जलती हुई सिगरेट थी। न फेंकते बनता था और न ही पकड़े रखने की हिम्मत थी। पिता जी गुस्से में बोले, ‘तो ये है तुम्हारी नेशनल लेवल की गेम्ज में जाने की तैयारी। मैंने गलती की जो तुम्हारी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दिया। तुम्हारी बात मानता रहा कि तुम खेल को ही करिअर बनाना चाहते हो। मुझे तो आज पता चला कि तुम गलत लोगों के साथ मिलकर क्या गुल खिला रहे हो।’
‘सर, पिताजी ने सबके सामने मेरे बाल खींचकर बूटों और घूंसों से मेरी धुनाई की। बस वहीं सारी गड़बड़ हो गई। सब के सामने यूं मुझे अपमानित करके उन्होंने बगावत करने की गलत प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। मैंने अपना सारा गुस्सा कैंटीन की शीशे की खिड़की पर उतारा। ये हथेली पर निशान देख रहे हैं न आप, यह उस दिन की निशानी है। घर नामक संस्था के खिलाफ यह मेरे गुस्से की पहली अभिव्यक्ति थी। उस दिन मैं संभल जाता तो आज अच्छी पोजीशन पर होता, मगर मैं आवारा लड़कों की सोहबत में चला गया। अब मैं शराब पीने लगा और उससे बड़े असरदार नशों की तरफ चलता गया।
घर में मैं चोरी करने लगा था। घर में पैसे मिल जाते मगर मेरी जरूरतें बढ़ती जा रही थीं। किसी तरह मैंने तीन साल लगाकर बारहवीं क्लास पास की, वह भी बहुत कम नम्बरों से। पिताजी का शहर में रसूख था। उन्होंने किसी तरह मुझे यहां बाबू लगवा दिया। उन्हें पता था कि अब मुझमें कोई सुधार नहीं हो सकता। कई केन्द्रों में उन्होंने मुझे रखकर देख लिया था। अब उनका रवैया नरम पड़ गया था। उन्होंने सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दिया था। अब उन्हें मुझ पर तरस आता था। उन्हें साफ दिख रहा था कि मैं नशे के हाथों कितना मजबूर हूं। उन्हें लगता था कि ज्यादा सख्ती करने पर मैं कहीं आत्महत्या न कर लूं। मैं दो-तीन बार ऐसी कोशिशें कर चुका था।
नौकरी लगी तो शादी भी हो गई मेरी। समय तो किसी के लिए नहीं रुकता। पिता ने इतनी समझदारी की थी कि मेरी लिए नौकरी वाली पत्नी ढूंढ़ी। मुझ पर उनका भरोसा उठ गया था क्योंकि मुझे तो अपने नशे के शौक पूरा करने के सिवा कुछ और सूझता नहीं था। एक बेटा भी पैदा हो गया, मगर उसकी ममता भी मुझे इस जानलेवा नशे की आदत से दूर न कर सकी। नशे के टीके लगा-लगाकर मेरी बांहें व टांगें गलने लगीं थी। ये देखिए मेरे निशान।
एक बार की बात है, पैसों का बहुत टोटा था। मुझे कहीं से पता चला कि आज ऑफिस में बोनस मिलना है। मैं लुंगी-कुर्ते में ही ऑफिस आ गया, बोनस लेने। सारा ऑफिस मुझ पर हंस रहा था मगर मेरी नजर मिलने वाले पैसे पर थी। सर, वह लुंगी आम लुंगी भी नहीं थी। वह एक मैली-कुचैली चादर थी जिसे रात को नीचे बिछाकर मैं बाजार के बरामदे में ही सो जाता था। पिताजी की तीन मंजिला कोठी थी मगर मैं लड़-झगड़कर कई-कई दिन बाहर ही पड़ा रहता था। घरवालों ने मुझे मरा हुआ समझ लिया था।
सर, मुझे लगता है यह सारा काम शैतान का है। अच्छे घरों के भोले बच्चों को गुमराह करना किसी देवता का काम नहीं हो सकता। हर कदम पर बीसियों बिगड़े हुए बच्चे मुझे नजर आते। कुछ मेरे चेले थे, कुछ मेरे उस्ताद। शैतान के कारोबार का मैं भी एक हिस्सेदार बन चुका था। कितने लड़कों को बुरे मार्ग पर चलने के लिए मैंने ही उकसाया था।
इतने सारे गलत लोगों के साथ रहते-रहते मुझे लगता था कि मैं गलत नहीं हूं मगर जब मैं अपने कई सहपाठियों को देखता जो अच्छे ओहदों पर हैं तो मेरा मन ग्लानि से भर जाता। अपने पिताजी की थकी-हारी निराश आंखें मुझसे देखी नहीं जाती थीं। उन्होंने मुझे ठीक रास्ते पर लाने में ही सारी उम्र लगा थी। मां तो कब की यह गम न सह सकने के कारण चल बसी थी।
फिर इस संस्था की तरफ मेरे कदम उठे। मैंने देखा कि किस तरह कुछ लोग समर्पित भाव से तन-मन-धन से हम जैसे नशेड़ी लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे हैं। ये वही लोग थे जिन्होंने नशे के हाथों अपनी जवानी और एम्बीशन को होम कर दिया था। आज जो बातें मैं आप से बोल रहा हूं यह सब मैंने वहीं से सीखा है। मैंने उन्हें सुना तो मुझे लगा कि उनकी बातों में दम है, यह सब उनका भोगा हुआ यथार्थ था।
आज जब मुझे पता चलता है कि फलां जगह कोई नशे का शिकार है और छोड़ने का इरादा रखता है तो मैं अपने सारे काम छोड़कर उसे अपने केन्द्र में लाता हूं और उसका इलाज शुरू करवाता हूं। हर कोई चाहता है कि वह इस नरक से बाहर निकले, मगर यह समाज उसकी मदद करने की बजाय उस पर ताने कसता है, उसकी उपेक्षा करता है। हम सब लोग शैतान को हराने में लगे हैं। सर, वह दिन कब आएगा जब हमारे केन्द्र में एक भी बच्चा नहीं होगा। वह दिन आएगा न सर। जरूर आएगा।’
भोपाल सिंह का चेहरा आंसुओं से तर था।

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