भ्रष्टाचार की गहरी जड़ें
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि केंद्र सरकार के दावों के बावजूद उसके विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार दूर करने में सफलता नहीं मिली है। इन विभागों में छोटे-बड़े कामों के लिये सुविधा शुल्क चुकाना पड़ता है। हर चुनाव में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा होता है। कई सरकारें भ्रष्टाचार के मुद्दे पर विदा की गईं, लेकिन भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर सत्ता में आई सरकारों में भी यह स्थिति बदली नहीं है। वैश्विक सर्वे में हर बार भारत भ्रष्टाचार के पायदान में चढ़ता या उसके आसपास ही दिखता है। कहने को तो राजग सरकार ने भ्रष्टाचार उन्मूलन को अपनी प्राथमिकता बनाया है लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात रहे। हाल ही में केंद्रीय सतर्कता आयोग यानी सीवीसी की भ्रष्टाचार पर आई रिपोर्ट कमोबेश यही स्थिति दर्शाती है। सीवीसी की रिपोर्ट में रेलवे, गृह मंत्रालय तथा बैंकों में अनियमितताओं की सबसे अधिक शिकायतें पायी गई हैं। रिपोर्ट चौंकाती है कि केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों के अधिकारियों के खिलाफ एक लाख पंद्रह हजार अनियमितताओं की शिकायतें दर्ज की गई हैं। चिंता की बात यह है कि जनहित के लिये जवाबदेह गृहमंत्रालय के अधिकारियों के खिलाफ सबसे ज्यादा शिकायतें दर्ज हुईं। इन शिकायतों में से आधी शिकायतों का निस्तारण हो पाया है। वैसे तो नियम से सीवीसी को ऐसी शिकायतों का निदान तीन माह के भीतर करना होता है, लेकिन बड़ी संख्या में शिकायतें तीन माह से अधिक समय से लंबित हैं। यह स्थिति तब है जबकि राजग सरकार का दावा रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टोलरेंस की नीति का पालन किया जायेगा। विडंबना है कि जिस विभाग के पास कानून-व्यवस्था को बनाये रखने का दायित्व है, उसी में अनियमितताओं के ज्यादा मामले सामने आए हैं। सवाल यह भी है कि जब केंद्रीय सरकार के विभिन्न विभागों में बीते एक साल में भ्रष्टाचार के एक लाख पंद्रह हजार मामले दर्ज हुए हैं, तो राज्य सरकारों के विभिन्न विभागों की क्या स्थिति होगी।
निस्संदेह यह स्थिति सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार का शिकंजा गहरा होने का ही संकेत है। उससे भी चिंताजनक बात यह है कि केंद्र की सख्ती के बावजूद उसके विभिन्न विभागों में भ्रष्टाचार पर अंकुश क्यों नहीं लग पा रहा है। कहीं न कहीं हमारी व्यवस्था भ्रष्ट तंत्र की निगरानी व कार्रवाई करने में विफल रही है। जरूरी नहीं है कि भ्रष्टाचार के जो मामले सीवीसी की रिपोर्ट में सामने आए हैं, वास्तविक स्थिति वैसी ही हो। तमाम लोग रिश्वत देने के बावजूद अपना काम खराब होने की आशंका में शिकायत करने से परहेज करते हैं, उन्हें भय रहता है कि व्यवस्थागत कानून की बाल की खाल निकालकर उन्हें शिकायत करने पर आगे परेशान किया जा सकता है। भ्रष्टाचार के मामलों के निस्तारण का यह अर्थ भी नहीं है कि भ्रष्टाचार नहीं हुआ या दोषियों को सही मायनों में दंडित कर ही दिया गया है। दरअसल, भ्रष्ट अधिकारी अपने बचाव के लिये तमाम तरह से कई कानूनों को अपनी ढाल बनाने से भी नहीं चूकते हैं। कहा जाता रहा है कि डिजिटल प्रणाली के जरिये कार्यों के निष्पादन से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है। लेकिन भ्रष्ट अधिकारी व कर्मचारी कमीशन व रिश्वत लेने के तमाम चोर रास्ते खोज ही लेते हैं। ऐसे में अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि छोटे शहरों व कस्बों में जहां हर काम में रिश्वत की दर तय कर दी गई होती हैं, वहां के हालात कैसे होंगे। यही वजह है कि आम धारणा बनती गई है कि कोई भी सरकारी काम सुविधा शुल्क के बिना नहीं हो सकता। जिसके चलते आम नागरिकों का भ्रष्ट व्यवस्था में पिसना नियति बन गई है। ऐसे में यक्ष प्रश्न यह है कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिये केंद्र व राज्य सरकारों के विभागों में कैसे पारदर्शी व्यवस्था को अंजाम दिया जाये। निस्संदेह, किसी भी समाज में भ्रष्टाचार की यह स्थिति मानवीय मूल्यों के पराभव व राष्ट्रीय चरित्र में गिरावट का भी परिचायक ही है।