निबंधों में गहरी आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि
अरुण कुमार कैहरबा
विभिन्न विधाओं की दो दर्जन से अधिक किताबें लिख चुके डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार के निबंध-संग्रह ‘साधो! यह मुर्दों का गांव!’ में भारतीय समाज, संस्कृति, इतिहास, धर्म, अर्थव्यवस्था और भाषा आदि पर आधारित 16 निबंध हैं। विविधता को समाहित करने के बावजूद सभी निबंध समता एवं न्याय पर आधारित बेहतर सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण की छटपटाहट लिए हुए हैं। गहन गंभीरता और विचारशीलता से सराबोर इन निबंधों में इतिहास का आलोचनात्मक विश्लेषण है, वर्तमान की गहरी छानबीन है और उज्ज्वल भविष्य को दिशा देेने की कोशिश है।
लेखक आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना के स्थान पर मध्यकालीन संकीर्ण मानसिकता के बढ़ते जाने को लेकर चिंतित है। पहला ही निबंध ‘साधो! यह मुर्दों का गांव!’ से ही किताब का भी नामकरण किया गया है, जो कि उचित जान पड़ता है। यह पूरे संग्रह का प्रतिनिधि निबंध है, जिसमें मध्यम वर्ग की समाज परिवर्तन और विशेष रूप से भारतीय संदर्भ में स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका को रेखांकित किया गया है। मौजूदा समय में अपनी भूमिका के प्रति इस वर्ग की उदासीनता पर व्यंग्य करते हुए लेखक कहता है कि अब विवेकशील, तर्कशील, अध्ययनशील और विचारशील मध्यम वर्ग में देखने को नहीं मिल रहा है। अब वह समाज के कमजोर वर्गों के हितों से विमुख, आत्मकेन्द्रित, घोर स्वार्थी, धर्मान्ध व अंधविश्वासी होता जा रहा है।
दूसरा निबंध, ‘अब अंबर-बेल ही अमर बेल बन गई है?’ में देश व प्रदेश की राजनीतिक दशा की विवेचना है। जिसमें लेखक कहता है कि अब राजनेता के लिए व्यापक जनाधार होना अनिवार्य नहीं रह गया है। बल्कि जोड़तोड़ व जातीय-साम्प्रदायिक विभाजन की महारत ही राजनीति में सफलता का आधार बन गई है।
सभी निबंध पठनीय हैं, जो कि विषय को लेकर गहरी आलोचनात्मक अंतर्द़ृष्टि प्रदान करते हैं। निबंधों की भाषा बहुत सशक्त है। अनेक स्थानों पर भाषा व्यंग्यात्मकता से धारदार बन गई है।