सत्संग संग मौत
उत्तर प्रदेश के हाथरस में मंगलवार को एक सत्संग के समापन के बाद मची भगदड़ में सौ से अधिक लोगों के मरने की घटना ने पूरे देश को विचलित किया। सिकंदराराऊ के निकट फुलरई के एक खेत में कथित हरि बाबा का एक दिवसीय सत्संग चल रहा था। बताते हैं जब बाबा का काफिला जाने लगा तो सेवादारों ने करीब पचास हजार से अधिक श्रद्धालुओं को रोक दिया। गर्मी व उमस वाली भरी दोपहर में सत्संग सुनने के बाद श्रद्धालु घर जाने को बेताब थे। फिर भगदड़ मच गई और जो गिरा वो उठ न सका। लोगों की चीख-पुकार को सुनने के लिये वहां पुलिस-प्रशासन की कोई व्यवस्था नहीं थी। नजदीकी जनपद एटा के अस्पतालों के बाहर लगे लाशों के अंबार हृदयविदारक थे। चारों तरफ करुण क्रंदन और अपनों को तलाशने की बेबसी थी। सौ से अधिक लाशों का ढेर देखकर आहत एक पुलिस कांस्टेबल का हार्टफेल होने से निधन हो गया। मरने वालों में अधिकांश महिलाएं थीं, वहीं कुछ पुरुष व बच्चे भी शामिल हैं। घायलों को हाथरस से लगते एटा अस्पताल भेजा गया है। हादसा बड़े आयोजन में सुरक्षा उपायों की अनदेखी पर सवाल उठाता है। सवाल यह भी है कि 17 साल पहले पुलिस की नौकरी छोड़कर कथावाचक बने बाबा में ऐसा क्या सम्मोहन था कि वहां मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश व हरियाणा तक से हजारों श्रद्धालु जुटे थे। अब जांच, मुआवजे तथा कार्रवाई की बात कही जा रही है। सवाल उठता है कि इतना बड़ा आयोजन बिना पुख्ता इंतजाम के किसकी अनुमति से किया जा रहा था? क्या सुरक्षा मानकों का पालन किया गया? क्या इतने बड़े आयोजन की सुरक्षा का जिम्मा पुलिस-प्रशासन का नहीं होता? जाहिर है मौतों के बढ़ते आंकड़ों के साथ ही घटना पर लीपापोती की कोशिश भी की जाती रहेगी। निस्संदेह, ऐसे बाबाओं की दुकान बिना राजनेताओं के वरदहस्त के चलनी संभव नहीं है।
बहरहाल आने वाले दिनों में जांच के बाद किसी के सिर पर लापरवाही का ठीकरा फोड़ा जाएगा। मगर इन मौतों का कसूरवार कौन है? जिन लोगों ने अपनों को खोया है, उनकी कमी कैसे पूरी होगी? बताते हैं कि प्रवचन करने वाले बाबा नदारद हैं। कहा जा रहा है कि यह एक निजी कार्यक्रम था, कानून व्यवस्था के लिये प्रशासन की ड्यूटी लगाई गई थी, लेकिन आयोजन स्थल पर भीतरी व्यवस्था आयोजकों के द्वारा की जानी थी। बड़े अधिकारियों का घटना स्थल पर जाने का सिलसिला शुरू हो चुका है। लेकिन हकीकत है कि हम पिछले हादसों से कोई सबक नहीं सीखते। हाल के दिनों में भीड़भाड़ वाले धार्मिक आयोजनों में भगदड़ में लोगों के मरने के मामले लगातार बढ़े हैं। सवाल उठना स्वाभाविक है कि भीड़ के बीच होने वाले हादसों को कैसे रोका जाए। दो साल पहले माता वैष्णो देवी परिसर में भगदड़ में बारह श्रद्धालुओं की मौत हुई थी। अप्रैल 23 में बनारस की भगदड़ में 24 लोग मरे थे। इंदौर में पिछले साल रामनवमी के दिन बावड़ी की छत गिरने से पैंतीस लोग मर गये थे। इसी तरह 2016 में केरल के कोल्लम के एक मंदिर में आग लगने से 108 लोगों की मौत हुई और दौ से अधिक घायल हुए थे। पंजाब के अमृतसर में दशहरे के मौके पर रावण दहन देख रहे साठ लोगों के ट्रेन से कुचलकर मरने की घटना को नहीं भूले हैं। देश में भीड़ की भगदड़ से होने वाले 70 फीसदी हादसे धार्मिक आयोजनों के दौरान ही होते हैं। इसे रोकने को नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी ने भी कुछ गाइड लाइन्स जारी की थी। जिसमें राज्य सरकार, स्थानीय अधिकारियों, प्रशासन व आयोजकों को दिशा-निर्देश दिए गए थे। जिसके लिये भीड़ प्रबंधन से जुड़े लोगों की क्षमता विकसित करने व बेहतर प्रशिक्षण का सुझाव शामिल था। प्रशासन से भीड़ के व्यवहार व मनोविज्ञान का अध्ययन कर भीड़ प्रबंधन की बेहतर तकनीक विकसित करने को कहा गया था। जिसमें तिरुपति मंदिर हेतु आईआईएम अहमदाबाद की व्यवस्था की केस स्टडी भी शामिल थी। पुलिस को भी सख्ती के बजाय अच्छे व्यवहार के लिये कहा गया था। मगर रिपोर्ट का आज भी जमीन पर असर होता नहीं दिख रहा है।