जानलेवा गर्मी
नित नये रिकॉर्ड तोड़ती गर्मी स्पष्ट संकेत दे रही है कि समय रहते बचाव के लिये नीतिगत फैसले नहीं लिए गए तो एक बड़ी आबादी के जीवन पर संकट मंडराएगा। यह संकट तीखी गर्मी से होने वाली बीमारियाें व लू से होने वाली मौतें ही नहीं होंगी, बल्कि हमारी खाद्य सुरक्षा शृंखला भी टूटेगी। हालिया अध्ययन बता रहे हैं कि मौसमी तीव्रता से फसलों की उत्पादकता में भी कमी आई है। दरअसल, मौसम की यह तल्खी केवल भारत ही नहीं ,वैश्विक स्तर पर नजर आ रही है। एशिया के अलावा यूरोप व अमेरिकी देशों में भी तापमान में अप्रत्याशित बदलाव नजर आ रहा है। निश्चित रूप से यह तापमान उन लोगों के बेहद कष्टकारी है, जो पहले ही जीवनशैली से जुड़े रोगों से जूझ रहे हैं। जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता असाध्य रोगों की वजह से चूक रही है। ऐसा ही संकट वृद्धों के लिये भी है, जो बेहतर चिकित्सा सुविधाओं व सामाजिक सुरक्षा के अभाव में जीवन यापन कर रहे हैं। वैसे एक तथ्य यह भी है कि मौसम के चरम आने पर, यानी अब चाहे बाढ़ हो, शीत लहर हो या फिर लू हो, मरने वालों में अधिकांश गरीब व कामगार तबके के लोग ही होते हैं। जिनका जीवन गर्मी में बाहर निकले बिना या काम किये बिना चल नहीं सकता। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि उन्हें मौसम नहीं बल्कि गरीबी मारती है। पेट में पर्याप्त भोजन का अभाव कुपोषण को जन्म देता है। जिसके चलते व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता पर भी प्रभाव पड़ता है। लेकिन विडंबना यह है कि ग्लोबल वार्मिंग के हमारे दरवाजे पर दस्तक देने के बावजूद विकसित व संपन्न देश पर्यावरण संतुलन के प्रयास करने तथा आर्थिक सहयोग देने से बच रहे हैं। ऐसा नहीं है कि मौसम की मार से कोई विकसित व संपन्न देश बचा हो, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के क्रूर दोहन से औद्योगिक लक्ष्य पूरे करने वाले ये देश अब विकासशील देशों को नसीहत दे रहे हैं।
दरअसल, गर्मी के प्रभाव से हाइपरटेंशन, निर्जलीकरण, लू लगने के अलावा मानव स्वास्थ्य से जुड़े कई तरह के संकट सामने आ रहे हैं। कई तरह के मानसिक रोगों की भी आशंका जतायी जा रही है। जिसकी वजह से विश्व स्वास्थ्य संगठन सार्वजनिक स्वास्थ्य की आपात स्थितियों के पैदा होने की आशंका जता रहे हैं। बहरहाल, रिकॉर्ड तोड़ते तापमान के दुष्प्रभावों को कम करने के लिये सरकारों को नीतिगत उपायों को लागू करने को प्राथमिकता देनी होगी। सरकारों को मानना होगा कि वैसे तो प्रकृति किसी तरह का भेदभाव नहीं करती मगर सामाजिक असमानता के चलते वंचित समाज इसकी बड़ी कीमत चुकाता है। सरकार रेड अलर्ट व ऑरेंज अलर्ट की सूचना देकर अपने दायित्वों से पल्ला नहीं झाड़ सकती। खासकर ऐसे समय में जब हरियाणा व राजस्थान में पारा पचास पार करके गंभीर चुनौती का संकेत दे रहा है। स्कूल-कालेजों के संचालन, दोपहर की तीखी गर्मी के बीच कामगारों व बाजार के समय के निर्धारण को लेकर देश में एकरूपता का फैसला लेने की जरूरत है। कुछ जगह धारा 144 लागू की गई है, जो इस संकट का समाधान कदापि नहीं है। कभी संवेदनशील भारतीय समाज के संपन्न लोग सार्वजनिक स्थलों में प्याऊ की व्यवस्था करते थे। लेकिन आज संकट यह है कि पानी व शीतल पेय के कारोबारी मुनाफे के लिये सार्वजनिक पेयजल आपूर्ति को बाधित करने की फिराक में रहते हैं। सरकारों को नीतिगत फैसला लेकर विभिन्न फैक्ट्रियों व कार्यस्थलों पर पंखों व शीतल जल की उपलब्धता की अनिवार्यता सुनिश्चित करनी चाहिए। इसके अलावा उन कामगारों का भी ध्यान रखना होगा जो रोज कमाकर घर का चूल्हा जलाते हैं तथा खुले में काम करने को मजबूर होते हैं। उनके लिये छांव व ठंडे पानी की उपलब्धता मौलिक अधिकार जैसी होनी चाहिए। यह संकट आने वाले सालों में लगातार बढ़ेगा। इसलिए गर्मी के मौसम में काम के घंटों का निर्धारण मौसम की अनुकूलता के अनुरूप ही होना चाहिए। आसन्न संकट को महसूस करते हुए दीर्घकालीन रणनीति, इस चुनौती से निपटने के लिये बनाने की जरूरत है।