भूले-बिसरे पितरों के श्राद्ध का दिन
डॉ. पवन शर्मा
सनातन धर्म में अमावस्या व पूर्णिमा तिथि का बड़ा महत्व है, हर अमावस्या पर यूं तो स्नान-दान का महत्व होता ही है पर पितृपक्ष की अमावस्या का तो विशेष महत्व होता है। सर्वपितृ अमावस्या आश्विन माह की अमावस्या को कहा जाता है। आश्विन माह का कृष्ण पक्ष वह विशिष्ट काल है, जिसमें पितरों के लिए तर्पण और श्राद्ध आदि किये जाते है। यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की तिथि होती है, किंतु आश्विन मास की अमावस्या ‘पितृपक्ष’ के लिए उत्तम मानी गई है।
इस अमावस्या को ‘सर्वपितृ अमावस्या’ या ‘पितृविसर्जनी अमावस्या’ या ‘महालय समापन’ या ‘महालय विसर्जन’ आदि नामों से जाना जाता है। जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनों तक श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं कर पाते हैं और जिन पितरों की मृत्यु तिथि याद न हो, उन सबके श्राद्ध, तर्पण इत्यादि इसी अमावस्या को किये जाते है। इसलिए सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितर अपने पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा से विशेष रूप से आते हैं।
‘सर्वपितृ अमावस्या’ के दिन सभी भूले-बिसरे पितरों का श्राद्ध कर उनसे आशीर्वाद की कामना की जाती है। ‘सर्वपितृ अमावस्या’ के साथ ही 15 दिन का श्राद्ध पक्ष खत्म हो जाता है। कृष्ण पक्ष में पितरों का निवास माना गया है। इसलिए इस काल में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किए जाते हैं, जो ‘महालय’ भी कहलाता है। यदि कोई परिवार पितृदोष से कलह तथा दरिद्रता से गुजर रहा हो और पितृदोष शांति के लिए अपने पितरों की मृत्यु तिथि मालूम न हो तो उसे सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितरों का श्राद्ध-तर्पणादि करना चाहिए, जिससे पितृगण विशेष प्रसन्न होते हैं।
सर्वपितृ अमावस्या पर सभी पितरों के लिए श्राद्ध और दान किया जाता है, इससे पितृ पूरी तरह संतुष्ट हो जाते हैं। वायु रूप में धरती पर आये पितरों को इसी दिन विदाई दी जाती है और पितृ अपने परिवार को शुभाशीष देकर अपने लोक चले जाते हैं। उपनिषदों में कहा गया है कि सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध करने से पितर पूरे वर्ष तक संतुष्ट हो जाते हैं। सर्वपितृ अमावस्या के दिन बने भोजन को सबसे पहले कौवे, गाय और कुत्तों को अर्पित करना चाहिए। मान्यता है पितृ देव ये रूप धारण कर भोज करने आते हैं। हो सके तो भोजन में ‘दूधपाक या खीर’ बनायें, साथ ही पूड़ी, कढ़ी, चावल बनायें यह पितरों का भोजन माना जाता है।
ब्रह्मांड बारह राशियों से बंधा हुअा है। मेष राशि ब्रह्मांड का प्रवेश द्वार है। मीन राशि का द्वार देवलोक (सूर्यलोक) की ओर है। कन्या राशि का द्वार पितृलोक (चंद्रलोक) की ओर है। जब किसी की मृत्यु होती है तब जीव कर्मानुसार इनमें से एक द्वार की ओर गति करता है। सद्कर्म, सदाचार और परोपकारी जीव अपने पुण्यबल से सूर्यलोक जाता है। बाकी जीव पितृयान (चंद्रलोक) में गति करते है। चंद्र सूक्ष्म सृष्टि का नियमन करते हैं। सूर्य जब कन्या राशि में प्रवेश करते हैं तब पाताल और पितृलोक की सृष्टि का जागरण हो जाता है। चंद्रमा की 16 कला है। पूर्णिमा से अमावस्या तक कि 16 तिथि सोलह कला है। जिस दिन मनुष्य की मृत्यु होती है, उस दिन जो तिथि हो, वो कला खुली होती है इसलिए वो जीव को उस कला में स्थान मिलता है। भाद्रपद की पूर्णिमा से पितृलोक जागृत हो जाता है और जिस दिन जो कला खुली होती है उस दिन उस कला में रहे जीव पृथ्वीलोक में अपने स्नेही स्वजन, पुत्र पौत्रादिक के घर आते हैं। उस दिन परिवार द्वारा उनके लिए श्रद्धापूर्वक जो भी पूजा, नैवेद्य, दान-पुण्य हो रहा हो वो देखकर तृप्त होते हैं और आशीर्वाद देते हैं। ऐसे ही जिस घर में श्राद्ध या पूजा कुछ नहीं होता ये देखकर पितृ व्यथित होकर चले जाते हैं। कुल के आराध्य देवी-देवता उन जीवात्माओं के व्यथित होने से खिन्न होते हैं। जीवात्मा की गति के इस सूक्ष्म विज्ञान को समझकर हमारे ऋषि-मुनियों ने मनुष्य के कल्याण के लिए ये धर्म परम्परा स्थापित की है।