समर्पण की दक्षिणा
यूं तो समर्थ गुरु रामदास की अपने समय में पूरे देश में अपार ख्याति थी, लेकिन छत्रपति शिवाजी की अगाध श्रद्धा के चलते मराठा दरबार में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। एक दिन गुरु रामदास के शिष्यों के साथ सतारा पहुंचने की खबर शिवाजी को मिली तो वे दौड़े चले आए। शिवाजी ने उनसे महल में आने का विनम्र आग्रह किया तो रामदास ने कहा कि मैं राजसी मेहमान नहीं हूं, मैं तो भिक्षा लेने निकला हूं। थोड़ी देर महल में जाने के बाद शिवाजी बाहर निकले तो उनके हाथ में एक कागज का टुकड़ा था, जो उन्होंने गुरु जी के कमंडल में डाल दिया। यह देखकर गुरु रामदास और उनके शिष्य हैरत में पड़ गये। कागज में लिखा था कि मैं अपना संपूर्ण राज्य गुरु रामदास के नाम करता हूं। चौंकते हुए गुरु रामदास ने कहा- शिवा ये तूने क्या कर दिया? शिवाजी बिना जवाब दिये गुरु जी का भिक्षा-पात्र लेकर घर-घर भिक्षा लेने गये। भिक्षा में जो भी कुछ मिला, उससे भोजन बनाकर गुरु जी और उनके शिष्यों को खिलाया। शिवाजी की आस्था देखकर गुरु रामदास भावविह्वल हो गये। उन्होंने शिवाजी को आशीर्वाद दिया और कहा मैं तो साधु हूं, ये ले अपना राज संभाल और जनता की सेवा कर। ईश्वर तेरी मनोकामना पूर्ण करेंगे।
प्रस्तुति : डॉ. मधुसूदन शर्मा