सूचना-संवेदना का सारथी डािकया
सैली बलजीत
गंगाराम राजी हि.प्र. के चर्चित साहित्यकार हैं। ‘डाकिया डाक लाया’ उनका नव्यतम उपन्यास है। इसमें डाक व्यवस्था से जुड़ी जिज्ञासाओं और आज के सन्दर्भ में बदलती हुई विसंगतियों का चित्रण हुआ है। लेखक का स्वयं यह मानना है कि पिछली शताब्दी के डाक इतिहास का पन्ना है यह कृति, जिसमें परिवार, गांव, प्रदेश से लेकर देश के राजनीतिज्ञों तक में भ्रातृत्व खोया हुआ प्रतीत होता है। मानव स्वार्थ और अहंकार का मुखौटा ओढ़े हुए अंधी दौड़ में सम्मिलित है।
गंगाराम राजी ने अपने बचपन से जुड़ी डाक व्यवस्था और टेलीफ़ोन प्रणाली की स्मृतियों को विस्मृत नहीं होने दिया। उपन्यास की मूल कथा का आरम्भ उपन्यास के नायक को आपातकालीन स्थिति में अपने जीजा को पांच हजार रुपये उनकी बेटी के आपरेशन हेतु देने रेल से लखनऊ जाने से होता है। लखनऊ तक की रेलयात्रा ही उपन्यास का मूल तत्व है और इसी तत्व की अनेक छोटी-छोटी गाथाओं के ज़रिए उपन्यास आगे बढ़ता है। नायक का डाक के थैलों पर लेटे हुए आराम करना उसे स्वयं अच्छा लगता है, साथ ही फौजियों की चिट्ठियों के अलावा अनेक लोगों की भावनाओं से भरी चिट्ठियों के पीछे वह तरल होने से बच नहीं पाता। उपन्यास में एक अपंग लड़की का डाकिया से भावनात्मक जुड़ाव का प्रकरण भी भावुक करने वाला है, जो नंगे पांव पहाड़ी क्षेत्र की विपरीत भौगोलिक परिस्थितियों में डाक बांटने आता है। उस डाकिए के नंगे पांव देखते हुए, उस अपंग लड़की का उसे एक जोड़ी जूते भेंट करना उपन्यास का उत्कृष्ट हिस्सा है।
उपन्यासकार ने ऐसी ही अनेक-अनेक छोटी-छोटी घटनाओं का सूक्ष्मता से चित्रण किया है। कहीं-कहीं उपन्यास व्यंग्य कृति-सा अनुभव होता है।
पुस्तक : डाकिया डाक लाया लेखक : गंगाराम राजी प्रकाशक : नमन प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 100 मूल्य : रु.400.