मिज़ोरम में बदला रिवाज
पूर्वोत्तर के छोटे राज्य मिजोरम ने चुपके-चुपके रिवाज बदला है, जिसकी राष्ट्रीय परिदृश्य पर कम ही चर्चा हुई। राज्य गठन के बाद से एक रिवाज रहा है कि मिजो नेशनल फ्रंट और कांग्रेस जनादेश के अनुरूप सत्ता संभालते रहे हैं। लेकिन इस बार परिवर्तन यह है कि स्थानीय दलों का एक गठबंधन जोरम पीपुल्स मूवमेंट ने अपने बूते बहुमत जुटा लिया है। इस बदलाव को जनाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति बताया जा रहा है, जो अब तक सत्ता में काबिज परंपरागत दलों को नकारने जैसा है। इस विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री जोरमथांगा चुनाव हार गये और उनकी पार्टी एमएनएफ के हिस्से में सिर्फ दस सीटें आईं। वहीं कांग्रेस भी पिछले चुनाव में जीती पांच सीटों के मुकाबले इस बार एक ही सीट बचा सकी। दूसरी तरफ भाजपा ने दो सीटें जीतने में कामयाबी पाई। उल्लेखनीय है कि मणिपुर संकट से पहले एमएनएफ एनडीए का हिस्सा था,लेकिन ईसाई बहुल मिजोरम में केंद्र के खिलाफ रुझान देखते हुए पार्टी अलग हो गई। यहां तक कि एमएनएफ सरकार के मुख्यमंत्री जोरमथांगा ने प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा न करने तक की बात कह दी थी। शायद इन हालातों के चलते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शेष चार राज्यों में तो बार-बार चुनावी अभियानों में गए, लेकिन वे मिजोरम एक बार भी नहीं गए। बहरहाल, राज्य की बागडोर अब नये गठबंधन जोरम पीपुल मूवमेंट के सूत्रधार व मुख्यमंत्री पद के दावेदार लालदुहोमा के हाथ जाना तय है। जो एक पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं और जनता को यह समझाने में कामयाब रहे हैं कि कांग्रेस व मिजो नेशनल फ्रंट की सरकारों ने इस पर्वतीय राज्य के जरूरी विकास की अनदेखी की। उनके गठबंधन ने यह चुनाव ढांचागत विकास की खामियों, बेरोजगारी व भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों के बूते लड़ा। वैसे तो पूर्वोत्तर राज्यों का रुझान रहा है कि वे केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा बन जाते हैं ताकि विकास योजनाओं के लिये पर्याप्त धन जुटा सकें। भाजपा भी कह रही है कि वह नई बनने वाली सरकार का हिस्सा होगी। लेकिन मणिपुर संकट के उपजे हालात के चलते ऐसा करना लालदुहोमा के लिये आसान भी नहीं होगा।
बहरहाल, ये बदलाव इस पूर्वोत्तर राज्य के लिये एक नई सुबह का भी संकेत है। सत्ता विरोधी लहर में एमएनएफ महज दस सीटों पर सिमट कर रह गई। इस लहर ने मुख्यमंत्री जोरमथांगा व उपमुख्यमंत्री तावंलुइया को भी विधानसभा पहुंचने से रोक दिया। दरअसल, हिंदी पट्टी में अप्रत्याशित रूप से उलटफेर करने वाले नतीजों के एक दिन बाद आए इन परिणामों ने बदलाव की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त किया है। भाजपा ने राज्य के पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के जख्मों को दो सीट जीतकर हरा कर दिया। जो कांग्रेस के पूर्वोत्तर में सिमटते जनाधार की बानगी भी है। पार्टी को आत्मंथन करना होगा कि 2018 से पहले उसने लगातार दस साल तक मिजोरम में राज किया था, फिर क्यों वह अब राज्य में चौथे नंबर की पार्टी बनकर रह गई है। हाल के दिनों में राजग ने पूर्वोत्तर में भाजपा की जमीन तैयार करने में आशातीत सफलता पायी है। वैसे मिजोरम पूर्वोत्तर का एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भाजपा अपने बूते सत्ता का हिस्सा नहीं होगी। हालांकि, पार्टी ने घोषणा की है कि वह नई सरकार का हिस्सा बनना चाहेगी। वैसे कहा जा सकता है कि आने वाले समय में भाजपा के लिये नई उम्मीदें जगी हैं क्योंकि वह चुनाव परिणाम में कांग्रेस से आगे निकल गई है। वैसे नये गठबंधन के मुखिया लालदुहोमा के सामने भी चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है। मिजोरम के सामने वित्तीय संकट के साथ कई समस्याएं खड़ी हुई हैं। म्यांमार संकट मिजोरम को परेशान किए हुए है। प्रशासनिक अधिकारी म्यांमार सेना के हमलों के बाद मिजोरम आने वाले शरणार्थियों से जूझ रहे हैं। म्यांमार में ढाई साल से जारी गृहयुद्ध के बाद शरणार्थियों के आने का सिलसिला लगातार बना हुआ है। इसके अलावा भाजपा शासित पड़ोसी राज्य मणिपुर में जारी अशांति भी इस राज्य के लिये चुनौती है। वहां जारी जातीय संघर्ष के बाद मिजोरम की ओर अल्पसंख्यक समुदायों का पलायन बढ़ा है। इन तमाम चुनौतियों के बीच नई सरकार की राह आसान नहीं होगी।