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आलोचकों ने नवगीत को जानबूझकर नकारा

06:58 AM Feb 11, 2024 IST
आलोचकों ने नवगीत को जानबूझकर नकारा
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डॉ. राजेन्द्र गौतम
समकालीन कविता की अनेक धाराएं हैं, उसकी अनेक भंगिमाएं हैं, उसके अनेक रंग हैं। यदि इसके कुछ स्वर वर्णनात्मक हैं तो कुछ गीतात्मक भी हैं। यों गीत भी अब कोरा भावोच्छ्वास नहीं रहा है। नवगीत के रूप में उसका स्वर वस्तुपरक भी हुआ है। सत्यनारायण जी एक सुपरिचित नवगीतकार हैं। उनके चर्चित संकलन हैं ‘तुम न नहीं कर सकते’, ‘टूटते जलबिम्ब’ और ‘सभाध्यक्ष हंस रहा है’। नवगीत के समकालीन परिदृश्य तथा उनके रचनाकर्म पर एक बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत हैं :-
जब आपने काव्य-यात्रा आरम्भ की तब हिन्दी कविता का परिदृश्य कैसा था?
वह पिछली शताब्दी का छठा दशक था। यों कहें, उसकी शुरुआत थी और तब हिन्दी कविता का परिदृश्य तेजी से बदल रहा था। आजादी के बाद लगने लगा कि सपने टूट रहे हैं। खास कर 1962 में जब हमारे देश पर चीन का आक्रमण हुआ था, उसने जो यह प्रभामंडल था, उसको तोड़ दिया।
शायद छन्द का विरोध भी उसी समय शुरू हुआ?
यह अपने आप में विचित्र मुद्दा है। आप तीनों सप्तकों को देख लीजिए। 1943 में तार सप्तक आया-- अज्ञेय जी के संपादन में, फिर आठ वर्षों के अंतराल पर 1951 में दूसरा सप्तक आया और फिर तीसरा 1958 में। सप्तकों में विशेषकर दूसरे और तीसरे में गीतों की भरमार है।
जी, हम विशेषकर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और केदारनाथ सिंह के गीत देख सकते हैं?
सर्वेश्वर के तो थे ही लेकिन उससे पहले धर्मवीर भारती और नरेश मेहता के गीत और एकाध गीत तो विजयदेव नारायण सिंह के भी थे। छन्द को उस समय तक कवियों ने छोड़ा नहीं था। तार सप्तक में भवानीप्रसाद मिश्र की जो पहली कविता थी मूलतः वह गीत ही था ‘फूल लाया हूं कमल के क्या करूं इनका/ पसारें आप आंचल/ हो जाए जी हलका।’
यह तो गीत है, बल्कि नवगीत कह सकते हैं। इसी तरह नरेश मेहता के ‘पीले फूल कनेर के...’ । और ‘किरण धेनुएं हांक ला रहा यह सांझ का ग्वाला’ को भी देखिए। वहीं 1940 के आसपास सर्वेश्वर ने लोकजीवन को गीत में उतारा है।
बतौर आंदोलन गीत का उभार सन‍् साठ के बाद आरम्भ हुआ। गीतांगिनी सन‍् ’58 में आई, तो हमें ‘नवगीत’ नाम भी मिल जाता है। यद्यपि प्रवृत्तियां तो उसमें नवगीत की नहीं मानी जा सकतीं?
राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने इसमें नवगीत के जो मापदण्ड निर्धारित किए और जो गीत इसमें छापे हैं, उनमें कहीं कोई तालमेल नहीं है, संगति नहीं है। यह ठीक है कि उन्होंने ‘नवगीत’ नाम का लिखित रूप में, पहली बार प्रयोग किया।
संक्रमण-बिन्दु, जहां गीत नवगीत में रूपान्तरित होता है, पर आपकी टिप्पणी?
इस संक्रमण काल में सबसे अच्छी पहल ठाकुर प्रसाद सिंह ने की थी। यह पहल लोक से जुड़ने की थी।
आजादी के बाद लोक से जुड़ने की कामना आंचलिक उपन्यासों और निबन्धों में भी है। शायद उसी क्रम में ठाकुर प्रसाद सिंह के गीत आए। शम्भुनाथ सिंह के ‘माध्यम मैं’ में भी वही प्रवृत्ति है?
शम्भुनाथ सिंह का तो वह गीत ‘मन का आकाश उड़ा जा रहा/ पुरवैया धीरे बहो’ बहुत प्रसिद्ध हुआ। उसी तरह का गीत है ‘टेर रही प्रिया, तुम कहां?’
तो क्या नवगीत का आरम्भ इन आंचलिक स्थितियों से हुआ और बाद में उसका रूपान्तरण नागरिक विसंगतियों के चित्रण में हुआ?
यही दो धाराएं थीं, नवगीत पहले तो आंचलिकता से शुरू हुआ। उसमें लोक-लय लोक-जीवन और छन्द भी कुछ उसी तरह के थे। लोकगीतों के छन्द लिए गए।
लोकगीतों का प्रयोग तो बच्चन जी ने भी किया है लेकिन उनसे पहले ही शम्भुनाथ और ठाकुरप्रसाद सिंह लोक-छन्दों का प्रयोग कर चुके थे?
जी हां। इस तरह उन्होंने छन्द में, लय में, भाषा में लोक को अपने गीतों में सामने रखा। अज्ञेय जी ने केदारनाथ सिंह को सबसे पहले सुना था बनारस में। वे प्रभावित हुए और कहा कि ये गीत मुझे दे दो। इन्हें मैं तीसरे सप्तक में छापूंगा। 1953 की बात है, ठाकुर प्रसाद सिंह ‘गोधूलि’ निकालते थे उसमें केदार जी का एक गीत था जिसकी पहली पंक्ति थी ‘ठेठ दूध की भाषा वह/ मैं वह भूल गया हूं।’ यह ठेठ दूध की भाषा का बिम्ब अद्भुत है।
आप किस तरह से नवगीत का रूप परिवर्तित होते देखते रहे हैं?
जब नवगीत का विकास आरम्भ हुआ मैं भी कविताएं लिख रहा था और जब समकालीन सन्दर्भों से मेरा मोहभंग हुआ तो मैं लोहिया से प्रभावित हुआ था। एक ऐसी भाषा जो आम लोगों से जुड़ी हो, जनता से जुड़ी हो और जो स्थितियां थीं, उनके प्रति एक वाजिब गुस्सा, यह भी लोहिया की प्रेरणा थी। तो उससे प्रभावित होकर लिखने लगे और फिर मैंने सोचा कि ये बातें सिर्फ कविता में क्यों, गीत में क्यों नहीं आ सकतीं? और तब लिखा मैंने ‘अब नहीं मिलता कहीं लहर का संकेत/ मुट्ठियों में रह गये हैं सीप, कंकड़ रेत’। वह जो शहर का सन्त्रास है, जीवन है, उसको लेकर मैंने लिखना शुरू किया। यह एक पड़ाव है। उस समय के कई गीत इस तरह के हैं। जैसे ‘कुछ भी तो नहीं यहां इधर या उधर/ क्या होगा लेकर यह अजनबी शहर।’ मैं ऐसे-ऐसे लोगों के नाम ले सकता हूं, जिनमें प्रगतिशीलता के तत्व मौजूद हैं लेकिन इनको हमारे आलोचकों ने जानबूझ कर नकारा और कहा कि गीत में कोई अच्छी बड़ी सार्थक कविता नहीं हो सकती है, जबकि आप देखें देवेन्द्र कुमार बंगाली के गीत - ‘हम ठहरे गांव के/ रिश्ते सब बोझ हुए कन्धे के पांव के’/ ‘सीना गोड़ी टांगें, मांगें तो क्या मांगें।’ गुलाब सिंह ने ऐसे बहुत गीत लिखे तो माहेश्वर तिवारी आदि और कवियों ने भी लिखे।
चाहे युद्ध के विरोध की बात हो या समसामयिक जीवन की वीरेन्द्र मिश्र ने भी तब प्रगतिशील गीत लिखे थे।
जी वीरेन्द्र मिश्र ने तो कितना कुछ लिखा है। उनमें विविधता बहुत है। उन्होंने समुद्र तट के मछुअारों पर गीत लिखे...
एक तरह से उनको हम मुम्बई के आंचलिक गीत कह सकते हैं?
हां, कह सकते हैं। इस तरह के गीतों के अलावा उनका यह युद्ध विरोधी गीत देखिए : ‘कंधों पर धरे खूनी यूरेनियम/ युद्धों के मलबे से उठते हैं.../ और गिरते हैं हम।’
नवगीत के यथार्थबोध को भी नई कविता के आलोचकों ने अस्वीकार किया?
नई कविता के आलोचकों का जो यह आरोप बेमानी है कि नवगीत में बौद्धिकता और यथार्थ नहीं है। नवगीत ने यदि बौद्धिकता स्वीकार की है तो एक तरलता, संवेदनशीलता के साथ। हमारा वह यथार्थ भी ठीक खुरदुरा यथार्थ है लेकिन हम एक तरल संवेदना के साथ सामने रखते हैं।
गीत-नवगीत के मूल्यांकन के तरीके से क्या आप संतुष्ट हैं?
गीत-नवगीत का मूल्यांकन हुआ है या नहीं हुआ है यह एक और बात है लेकिन आप देखिए कविता का ही मूल्यांकन कितना हुआ है? कुछ लोगों ने ऐसा प्रपंच रच दिया कि उनकी विचारधारा से सहमत नहीं हैं, उन पर लिखना क्या, बोलना भी छोड़ दिया। उनकी समझ से हिन्दी की समकालीन कविता का परिदृश्य केवल शमशेर, मुक्तिबोध, त्रिलोचन और नागार्जुन से बनता है और उन्होंने यह सोचा ही नहीं कि कविता के पूरे परिदृश्य में उन और कवियों का भी महत्व है जिन्हें हम सब पढ़ते रहे हैं, चाहे वे अज्ञेय रहे हों, रघुवीर सहाय रहे हों, भारती हों, विजयदेव नारायण सिंह हों, या और लोग। इस आलोचना ने नई कविता के साथ अन्याय किया। गीत को तो उन लोगों ने शुरू में ही खारिज कर दिया।
नवगीत को तो गैर-ईमानदार तक कहा गया। उनका कहना है कि वह समसामयिक यथार्थ के साथ नहीं जुड़ पा रहा है?
नवगीत गैर-ईमानदार कहां है। अजीब बात है। यानी समसामयिक यथार्थ नहीं है जबकि इधर जो गीत लिखे जा रहे हैं वे सब समसामयिक यथार्थ से जुड़े हुए गीत हैं। वे गीत जीवन को समग्रता में प्रस्तुत करते हैं। मैं तो इस विचार-विमर्श का सार वीरेन्द्र मिश्र की इस पंक्ति के माध्यम से रखना चाहूंगा ‘गीत की जीवनी/ मैं लिखूं, तुम लिखो/ एक ही बात है।’

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