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गुनाह

06:43 AM Mar 10, 2024 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी
सुरिंदर गीत

मां की बीमारी का सुनकर मुझे नवंबर के महीने में भारत आना पड़ा।
शाम को बीबी की तबीयत खराब हो गई। सोचा, मंडी जाकर दवाई ले ही आते हैं। कार पर पंद्रह-बीस मिनट लगते हैं। मैंने मक्खन को कार निकालने के लिए कहा। मक्खन उन दिनों हमारी कार चलाया करता था। कई लोग उसको ड्राइवर कहते, पर हमने कभी उसको ड्राइवर नहीं समझा था। गांव में अपने ही घरों से था। आजकल जमींदारों के घरों में गरीबी आई हुई है। बेचारों को कुछ अच्छे घरों में ऐसे छोटे-मोटे काम करने पड़ते हैं।
डॉक्टर से पहले ही पूछ लिया था। उसने आकर दवाई ले जाने के लिए कह दिया था। इसलिए मैं और मक्खन दिन ढलते ही मंडी जाने के लिए तैयार हो गए। डर-सा लगता था, पर बीच में ही भाई दर्शन बोल उठा, ‘अपने गांवों में कोई डर वाली बात नहीं है। अगर जाना है तो अभी चल दो।’
‘चलो, मैं भी चलता हूं तुम्हारे साथ। आना-जाना ही तो है।’ कहकर वह भी कार में बैठ गया। भाई दर्शन के साथ हमारे घर की दीवार साझी थी।
सूरज करीब करीब छिपने वाला था। धान काटा जा चुका था। अब किसान धान के खाली हुए खेतों में पराली जला रहे थे।
‘बहन, अपने गांवों में डर तो कोई नहीं, पर ये नशे-पत्ते वाले लूटपाट करते हैं। परसों बद्धनी वाली सड़क पर अपने गांव से पापड़ बेचकर जाते एक बंदे से पैसे और मोबाइल छीन लिया।’ भाई दर्शन ने चुप तोड़ते हुए कहा।
‘कौन थे?’ मैंने सहमी-सी आवाज़ में पूछा।
‘कहते हैं, बगल वाले गांव से ही थे।’
उसने बात खत्म ही की थी कि मैं चीख उठी, ‘अरे रोकना! रोकना!! लड़की इतने अंधेरे में पैदल ही चली जाती है।’
मैंने देख लिया था कि लड़की ने एक भारी-सा बैग उठा रखा था। यह वही लड़की थी जिसको मैंने दिन में किसी कंपनी का माल बेचते हुए देखा था। वह हमारे घर भी आई थी, एलोवेरा जूस और अन्य छोटा-मोटा सामान बेचने। 19-20 साल की सुंदर-सलोनी युवती। साधारण-सा सलवार-कमीज और पैरों में फीतों वाले बूट। इस समय उसका सड़क पर यूं अकेले जाना अजीब-सा ही नहीं, खतरनाक भी लगता था। जब वह हमारे घर सामान बेचने आई थी तो मेरे पूछने पर उसने बताया था कि उसका घर मंडी में है। ‘इतनी दूर रात को सूनी राह पर जवान लड़की का जाना ठीक नहीं।’ मैं गहरी सोच में डूब गई। तरह-तरह के ख़याल मेरे ज़हन में घूम रहे थे कि हमारी कार रुक गई। मक्खन ने खिड़की खोली और बाहर निकलकर ऊंची आवाज़ में कहा, ‘आ जा बेटी।’ पर लड़की की चाल में ज़रा भी फर्क न पड़ा। मैं समझ गई कि लड़की डर गई है, सोच रही है कि कार में न मालूम कौन हैं? मैंने दूसरी तरफ का दरवाज़ा खोला और बाहर निकलकर खड़़ी हो गई। लड़की मुझे देखकर दौड़ती हुई हमारे पास आ गई। अब उसे यकीन हो गया था कि ये लोग उसकी मदद करने के लिए खड़े हैं। लड़की चुपचाप मेरे साथ कार में पिछली सीट पर बैठ गई।
कुछ ठंड भी थी। उसने पीठ पर उठाया बैग उतारकर कार की सीट पर रखा, चुन्नी से अपना मुंह पोंछा। एक लंबा सांस लिया। अपने इर्दगिर्द लपेटा सूती शाल उतारकर कार की सीट पर रख लिया। अब वह डर से मुक्त थी।
भाई दर्शन से रहा न गया। वह बड़ी तल्ख़ आवाज़ में कहने लगा, ‘यह कोई वक्त है राह में पैदल चलने का? तू थोड़ा पहले चल पड़ती। समय खराब है, सूरज छिपे तो बंदा भी नहीं चलता और तू पगली इस वक्त चल दी।’
‘आज मेरी बस निकल गई थी। पैदल न चलती तो और क्या करती?’
मैंने कहा, ‘लड़की, तू फोन कर देती, कोई तुझे लेने आ जाता।’
‘आंटी, हमें फोन नहीं रखने देते कंपनी वाले।’
‘अच्छा... यह तो अच्छी बात नहीं। और हां, अब तुझे पहले अपने दफ्तर जाना होगा यह बताने के लिए कि तू पहुंच गई है?’ मैंने पूछा।
हम मंडी पहुंचने ही वाले थे।
लड़की कहने लगी, ‘इस वक्त वहां कोई नहीं होगा। आप मुझे मेरे घर छोड़ दो।’
‘ठीक है।’ कहकर मैं फिर सोचने लगी।
सोच-विचारों में ही हम लड़की के घर के पास पहुंच गए। हमने अभी कार खड़ी ही की थी कि लड़की का पिता बाहर आ गया। यूं लगता था जैसे वह पहले से खड़ा होकर अपनी बेटी की प्रतीक्षा कर रहा था। वह हमारे साथ अपनी बेटी को देखकर खुश हो गया। वह बार-बार हमारा धन्यवाद करते हुए हमें अंदर ले जाकर चाय-पानी की सेवा करना चाहता था। पर हमें डॉक्टर से दवाई लेनी थी, इसलिए अधिक देर रुक नहीं सकते थे। लड़की के पिता ने बताया कि वे बड़ी मुश्किल से बेटी को बारहवीं तक पढ़ा सके हैं। मां इसकी बीमार रहती है। काला पीलिया हुआ है। एक लड़का है, न हुओं जैसा। नशा-पत्ता करने लगा है। मैं दिहाड़ी करता हूं। अब भारी काम नहीं होता। किसका मन करता है जवान बेटी को बेगाने गांव में दवाइयां बेचने के लिए भेजने को? इसको तीन हज़ार देते हैं महीने का। गुज़ारा हो जाता है।
‘वह तो ठीक है, पर इसको चाहिए कि अपने पास फोन रख ले। कहीं ज़रूरत पड़ जाती है।’ मैंने कहा, ‘चल कल को मैं तुझे फोन लेकर दे जाऊंगी और अगर कोई ऐसी बात हो जाए, तेरी बस छूट जाए तो तू बिना किसी भय-झिझक के हमारे घर चली आया कर।’
‘ठीक है आंटी जी, पर हमारी मैडम फोन रखने नहीं देती। मेरे पास फोन था, उसने लेकर अपने पास रख लिया।’ लड़की ने बेबसी प्रकट करते हुए कहा।
‘हैं... अ!’ सुनकर मुझे अचरज हुआ।
‘तो तेरी मैडम को अब कैसे पता लगेगा कि तू अपने घर पहुंच गई है या नहीं। वह भी फिक्र करती होगी।’
‘नहीं आंटी जी, मैडम को किस बात की फिक्र। हम खुद ही दूसरे-तीसरे दिन उसके पास जाकर माल ले आते हैं। महीने बाद हिसाब कर के तनख्वाह ले आते हैं।’
भाई दर्शन जल्दी मचा रहा था। उसकी बात भी ठीक थी, डॉक्टर हमारा इंतज़ार कर रहा था।
‘बेटी, मैडम का फोन नंबर बीबी को दे दे’, पिता के कहने पर लड़की ने फोन नम्बर मुझे दे दिया और मैं कार में बैठ गई।
दवाई लेकर हम वापस अपने गांव की ओर चल दिए। कार में बैठते ही मैंने उस नंबर पर फोन किया जो उस लड़की से लिया था। कई बार कोशिश की, पर कोई रेस्पोंस नहीं मिला। रात में मुझे अच्छी तरह नींद न आई। रातभर वह लड़की मेरी आंखों के सामने घूमती रही। अंधेरी सड़क पर पैदल चली जा रही सुंदर जवान लड़की। पराली को लगी आग मानो जलती चिताएं हों। कुछ भी हो सकता था। कोई लड़की का माल और दिनभर कमाये रुपये-पैसे छीनकर ले जा सकता था। बलात्कार भी तो हो सकता था। ऐसा सोच कई बार मुझे पसीना आया।
अगली सवेरे उठते ही मैंने ताबड़तोड़ कई फोन किए। किसी ने नहीं उठाया। दिनभर कोशिश करने के बाद शाम को चार बजे के आसपास किसी ने हैलो कहा। मैंने अपने बारे में बताया और रात वाली सारी कहानी सुनाई। उसने मेरी बात सुनी और अनसुनी-सी कर दी। पर मैंने कहना जारी रखा कि आजकल समय खराब है। आए दिन बलात्कार होते हैं। बाहर काम करती लड़कियों की सेफ्टी का कुछ ख़याल रखना चाहिए। अच्छा हो यदि रात-बिरात काम करने वालों को घर छोड़ने का प्रबंध हो जाए। ख़ास कर के लड़कियों को।
उस पर मेरी किसी बात का कोई असर ही नहीं हो रहा था। वह तो मेरी हर बात का जवाब यूं दे रही थी जैसे यह कोई बात ही न हो। कहने लगी, ‘देखो, हम काम की तनख्वाह देते हैं, इनके पीछे-पीछे नहीं घूम सकते। यदि किसी को काम नहीं करना तो न करे।’
मुझे कोई बात सूझ ही नहीं रही थी। आखि़र मैंने बेशर्म-सी होकर फोन की बात शुरू कर ली। इस पर वह बोली, ‘लो, कर लो बात। हम फोन इसलिए नहीं रखने देते कि जवान लड़के-लड़कियां आपस में ही बातें करते रहते हैं। ज़माना बहुत खराब है आजकल।’
‘वह तो ठीक है, पर मैं सोचती हूं कि कल अगर उसके पास फोन होता तो वह आपको फोन कर के बता सकती थी कि वह लेट हो गई है। घर लौटने के लिए कोई साधन नहीं था। कोई प्रबंध किया जा सकता था, दसेक मिनट का तो रास्ता है कार से। और फिर, लड़कियां तो सबकी साझी होती हैं।’ मैंने सलाह देने के लहजे में कहा।
बात सुनकर उसक तो जैसे बदन में आग ही लग गई। पूरे गुस्से में आकर कहने लगी, ‘यह लड़की आपकी क्या लगती है?’
मैंने बहुत ही धैर्य से कहा, ‘मेरा तो इसके साथ इंसानियत वाला ही रिश्ता है। मैंने तो आपके नोटिस में लाने के लिए ही बात की है। मैं कोई आपके या आपकी कंपनी के काम में विघ्न नहीं डालना चाहती। यदि आपको अच्छा नहीं लगा तो मैं माफ़ी मांगती हूं।’
मेरी बात सुनकर वह कुछ पलों के लिए ख़ामोश हो गई। मैंने सोचा कि शायद मेरी बात वह समझ गई है या समझने का यत्न कर रही है।
बस फिर क्या था। फोन में से आती चीखती आवाज़ मेरा दिल भी चीर गई। वह कह रही थी, ‘यदि आपको इस लड़की के साथ ज्यादा ही हमदर्दी है तो अपने साथ कैनेडा क्यों नहीं ले जाते, वहां जाकर फोन भी ले देना और नई मर्सिडीज़ भी।’ इतना कहकर उसने फोन काट दिया।
तीन दिन बाद हम फिर मंडी दवाई लेने गए। सोचा उस लड़की की कार में रह गई शॉल उसको वापस दे आऊं। हमें देखकर लड़की की आंखें भर आईं।
मैंने पूछा, ‘आज काम पर नहीं गई?’
आंसुओं को चुन्नी से पोंछती हुई वह बोली, ‘आंटी जी, कल मुझे नौकरी से जवाब मिल गया।’ मेरे पैर मन मन भारी हो गए। पता नहीं मैं कैसे और कब लड़की की शॉल पकड़ाकर कार में बैठ गई। सोचों का बवंडर दिमाग में उठने लगा। लड़की की नौकरी चली गई। लगा मैं कोई गुनाह कर बैठी हूं।

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अनुवाद : सुभाष नीरव

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