व्यंग्य के सरोकारों की रचनात्मकता
प्रेम जनमेजय द्वारा सीमित-संसाधनों में दो दशक से व्यंग्य की रचनात्मकता को समृद्ध करने के लिये त्रैमासिक पत्रिका ‘व्यंग्य यात्रा’ का निरंतर संपादन सचमुच ऋषिकर्म जैसा है। कागज-छपाई आदि की महंगाई में बिना शासकीय-संबल के यह पथ निस्संदेह कठिन है। पत्रिका के डिजिटल रूप व सोशल मीडिया पर उपलब्धता निस्संदेह, सुखद है। पत्रिका के 78वें अंक में त्रिकोणीय विमर्श के अंतर्गत ज्ञान चतुर्वेदी के शीघ्र प्रकाश्य व्यंग्य उपन्यास ‘पागलखाना’ पर प्रेम जनमेजय, गौतम सान्याल, शिवकेश, अरुणा कपूर व राहुल का विचारोत्तेजक विमर्श शामिल है। ‘व्यंग्य विमर्श के संवादी’ स्तंभ में वरिष्ठ साहित्यकार ममता कालिया से रणविजय राव द्वारा लिया गया लंबा साक्षात्कार पठनीय है। व्यंग्य के समकालीन सवालों पर विमर्श के साथ ममता जी का कथन उल्लेखनीय है- ‘व्यंग्यकार का मतलब भयग्रस्त होकर नहीं, सर पर कफन बांधकर लिखना होता है।’ अंक में चर्चित रचनाकारों के गद्य व पद्य व्यंग्य के साथ सभी स्थायी स्तंभ उपलब्ध हैं। प्रेम जनमेजय ने व्यंग्य विधा को समृद्ध करने की प्रेरक पहल की है।
पत्रिका : व्यंग्य यात्रा संपादक : प्रेम जनमेजय प्रकाशक : yatravyangya2004 @gmail.com पृष्ठ : 124 मूल्य : रु. 20.