काव्यात्मक सोच का रचनात्मक विस्तार
अशोक गौतम
कविता में हास्य-व्यंग्य की परंपरा बहुत पुरानी है। जीवन में साहित्य में हास्य-व्यंग्य का बहुत महत्व है। और जब ये हास्य-व्यंग्य कविता के माध्यम से हमें आनंद प्रदान करें तो फिर बात कुछ और ही हो जाती है। जब व्यंग्य गद्यात्मक विधा नहीं थी तब कविता के माध्यम से ही हास्य-व्यंग्य पाठकों को आनंदित, आह्लादित करता था।
वे जो आधुनिक हिंदी भाषा की हास्य-व्यंग्य कवि गोष्ठियों की संस्कृति से जरा-सा भी परिचित हैं, उन्होंने रामरिख मनहर, विश्वनाथ शर्मा ‘विमलेश’, काका हाथरसी, बाल-कवि वैरागी, अल्हड़ बीकानेरी, गोपाल प्रसाद व्यास, अशोक चक्रधर, जैमिनी, सुरेंद्र शर्मा का नाम अवश्य सुना होगा। इन कवियों ने हास्य-व्यंग्य कवि सम्मेलनों के माध्यम से जनमानस में अपनी ख़ास जगह बनाई है। इन कविताओं का जनमानस पर प्रभाव होता रहा है।
इसी परंपरा में प्रवाह में बागी चाचा के हास्य-व्यंग्य कविता संग्रह ‘मुर्गासन’ को भी लिया जा सकता है। अपने इस संग्रह में वे अपनी हास्य-व्यंग्य कविताओं की भाषा शैली से पाठकों को चौंकाए बिना नहीं रहते। इन कविताओं में कवि ने अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से अपने समय की उन स्थितियों पर पैनी नजर बनाए रखी है जिनके माध्यम से पाठकों में हास्य-व्यंग्य की सृष्टि की जा सकती है। इस संग्रह की कविताओं के बीच से गुजरते हुए एकदम साफ हो जाता है कि कवि बागी चाचा की काव्यात्मक सोच और रचनात्मकता का कैनवास बहुत विस्तृत है।
इस संग्रह में उनकी कविता चिड़ियाघर हो या फिर त्याग दो तुम लिपस्टिक। नए साल में नई दुल्हनिया हो अथवा पतन से पत्नी। बस में छेड़छाड़ हो या कि प्लास्टिक की नारी। हर कविता के माध्यम से वे समाज और रिश्तों की विद्रूपताओं की कलई पूरी ईमानदारी से खोलते हैं।