जागरूकता से सत्ताधीशों की निरंकुशता पर नकेल
स्वतंत्र भारत के इतिहास में 25 जून को एक काले अध्याय की शुरुआत के रूप में याद किया जाता है। अड़तालीस साल पहले इसी दिन भारत में आपातकाल की घोषणा की गयी थी। कारण यह बताया गया था कि समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देश के विरोधी दल, भारत की शांति-व्यवस्था को भंग करने पर आमादा हैं। न तब इस कथित कारण को देश की जनता ने स्वीकारा था और न अब यह बात आसानी से जनता के गले उतर सकती है कि विपक्ष ने शासन-व्यवस्था के खिलाफ ऐसा वातावरण बना दिया था कि देश में अराजकता फैलाने का खतरा था। निश्चित रूप से 25 जून, 1975 को भारत के इतिहास में एक ऐसा काला अध्याय लिखा गया था जिसने जनतांत्रिक मूल्यों-आदर्शों की धज्जियां उड़ा दी थीं। आज भी कांग्रेस पार्टी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की इस ‘भूल’ का खमियाजा भुगत रही है। आज भी कांग्रेस-विरोधी दल, जिनमें वर्तमान सत्तारूढ़ दल प्रमुख है, आपातकाल के नाम पर कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करते रहते हैं। हालांकि कांग्रेस यह दावा कर सकती है कि इंदिरा गांधी ने घोषणा के उन्नीस माह बाद ही आपातकाल हटा कर और चुनाव करवा कर, अपनी भूल को ठीक करने का प्रयास किया था, लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि 1975 में आपातकाल की घोषणा ने जनतांत्रिक भारत के इतिहास में एक काला अध्याय लिखा था।
सवाल उठता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री ने ऐसा कदम उठाना क्यों ज़रूरी समझा? क्या सचमुच तब देश में ऐसी अराजकता की स्थिति उपस्थित हो गयी थी कि आपातकाल घोषित करना ज़रूरी हो गया? आपातकाल के समर्थन में तर्क तब भी दिए गये थे, यहां तक कि महात्मा गांधी के अनन्य शिष्य विनोबा भावे तक ने इसे ‘अनुशासन पर्व’ का नाम देकर इस अजनतांत्रिक कार्रवाई को समर्थन दिया था। लेकिन देश की जनता ने ऐसे किसी भी तर्क को नहीं स्वीकारा। लगभग दो साल के आपातकाल के बाद हुए चुनावों में इंदिरा गांधी को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। यह बात दूसरी है कि तब बनी जनता पार्टी की सरकार ज़्यादा समय तक टिक नहीं पायी थी, पर इस परिवर्तन ने यह अवश्य दिखा दिया था कि तानाशाही तौर-तरीकों से यह देश नहीं चलाया जा सकता। इंदिरा गांधी को हराकर जनता पार्टी को जिता कर, और फिर जल्दी ही जनता पार्टी की सरकार की जगह इंदिरा गांधी की सरकार को अवसर देकर देश की जनता ने यह बता दिया था कि देश जनतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं के अनुरूप ही चल सकता है। तानाशाही, भले ही वह किसी भी रूप में हो, देश की जनता को स्वीकार्य नहीं है।
अब यह एक खुला रहस्य है कि 1975 में इंदिरा गांधी ने कथित अराजकता का मुकाबला करने के लिए आपातकाल लागू नहीं किया था। सत्ता में बने रहने की लालसा ने ही उन्हें तब यह घोर अजनतांत्रिक कदम उठाने के लिए बाध्य किया था। इस कार्रवाई के पीछे कहीं न कहीं यह भावना भी काम कर रही थी कि जनता इंदिरा गांधी के ‘चमत्कारी व्यक्तित्व’ से भी सम्मोहित है। पर शायद उनकी खुशफहमी ही थी। जनतांत्रिक मूल्य इस देश की सहज मानसिकता में अंतर्निहित हैं। तानाशाही तरीकों से यह देश नहीं चलाया जाना चाहिए, न ही चलाया जा सकता।
बहरहाल, आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार ने संविधान में उचित और आवश्यक संशोधन करके ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि फिर कोई शासक सत्ता के मोह में पड़कर आपातकाल लागू करने जैसी बात न कर सके। लेकिन यह खतरा तो हमेशा बना ही रहेगा कि कोई शासक अपनी लोकप्रियता के भ्रम में तानाशाही रवैया अपनाने के लालच में पड़ जाये। इसलिए ज़रूरी है कि हर 25 जून को देश की जनता आपातकाल को याद करे, जनतांत्रिक भारत के इतिहास के उस काले अध्याय के संदर्भ में चिंतन करे कि क्यों और कैसे कोई शासक तानाशाही रवैया अपनाने के लालच में पड़ सकता है। जो शासक जितना लोकप्रिय होता है वह स्वयं को उतना ही ताकतवर भी समझ सकता है और यह समझ उसे तानाशाही तौर-तरीके अपनाने का अवसर दे सकती है। ऐसे में किसी शासक को यह भ्रम होना भी मुश्किल नहीं है कि वह तो ग़लती कर ही नहीं सकता, कि जनता उसकी गलतियों को ज़्यादा तरजीह नहीं देगी।
जनतांत्रिक व्यवस्था में ऐसी स्थिति का आना खतरनाक है। नागरिकों की जागरूकता ही इस खतरे से बचने का तरीका है। वैसे तो चुनाव के अवसर पर इस जागरूकता को परखा जा सकता है, पर जैसे कि डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था, ‘जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करती’, यह ज़रूरी है कि जनता में जागरूकता अनवरत बनी रहे। इंतजार न करने का मतलब यही है कि जनता चौकन्नी रहे। मतदाता का काम वोट देकर किसी को सिंहासन पर बिठाना ही नहीं है, उसे यह भी लगातार देखते रहना होता है कि उसका चुना हुआ शासक सत्ता की अपनी ताकत का शिकार तो नहीं हो रहा।
वर्ष 1975 में देश में आपातकाल लागू किया गया था जो 1977 तक चला। ये अर्सा सत्ता के आतंक की कथा सुनाता है। उस दौरान वह सब कुछ एक तानाशाही मानसिकता का शिकार हो गया था, जो जनतांत्रिक मूल्यों से जुड़ा होता है। यह बात हमेशा याद रखनी होगी कि सत्ता का मोह और सत्ता की ताकत शासक को ग़लत काम करने के लिए लालायित भी कर सकती है। यहीं इस बात को भी रेखांकित किया जाना ज़रूरी है कि जनतंत्र में निर्वाचित नेता शासक नहीं होता और जनता प्रजा नहीं होती।
नि:संदेह, निर्वाचित नेता हमारा प्रतिनिधि होता है। प्रतिनिधि को अपनी मर्यादाओं का ध्यान रखना चाहिए और जनता को यह अहसास बना रहना चाहिए कि जिसे उसने चुना है वह उच्छृंखल न हो जाये। इसका एकमात्र तरीका मतदाता की सतत जागरूकता है। यह जागरूकता ही किसी आपातकाल की मानसिकता के खतरे से जनतंत्र को बचाये रख सकती है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।