चंदे के धंधे पर नकेल
देश की सर्वोच्च अदालत ने गुरुवार को दिये अपने महत्वपूर्ण फैसले में चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम उठाया है। शीर्ष अदालत ने राजनीतिक दलों के लिये चंदा मुहैया कराने वाले इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक बताते हुए रद्द करने का फैसला सुनाया है। लोकतांत्रिक अधिकारों के संरक्षक के दायित्व को निभाते हुए कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड के तहत मिली राशि को गोपनीय रखने को सूचना के अधिकार कानून का उल्लंघन बताया। शीर्ष अदालत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ इस बात से चिंतित थे कि यदि राजनीतिक दल इसी तरह कंपनियों से गुपचुप चंदा लेते रहे तो कालांतर दान देने वाले कारोबारियों की अनुचित लाभ जुटाने की प्रवृत्ति को भी बढ़ावा मिल सकता है। मुख्य न्यायाधीश का मानना था कि चुनावी प्रक्रिया में काले धन पर काबू पाने के अन्य विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए, इलेक्टोरल बॉन्ड इसका अंतिम उपाय नहीं हो सकता। शीर्ष अदालत के इस फैसले का लोकतंत्र संरक्षण से जुड़ी संस्थाएं स्वागत कर रही हैं और इस फैसले को ऐतिहासिक बता रही हैं। अदालत के फैसले की महत्वपूर्ण बात यह भी कि बैंकों को राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के तहत मिली राशि की जानकारी देने के भी निर्देश दिए गए हैं। अदालत ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को निर्देश दिया कि वह चुनाव आयोग को चंदे से जुड़ी जानकारी उपलब्ध कराये। महत्वपूर्ण यह भी कि चुनाव आयोग इस ब्योरे को 31 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर आम लोगों के लिये जानकारी के लिये सार्वजनिक करेगा। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय बेच ने सर्वसम्मति से यह फैसला सुनाया। बेंच में मुख्य न्यायाधीश के अलावा न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति जेबी पार्डीवाला तथा न्यायमूर्ति मनोज मिश्र शामिल थे। राजनीतिक पंडित व कानूनी विशेषज्ञ मान रहे हैं कि इस फैसले से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने में मदद मिलेगी। जिसके भारतीय लोकतंत्र पर दीर्घकालीन सकारात्मक प्रभाव होंगे।
दरअसल, राजनीतिक दलों को बॉन्ड स्कीम के तहत चंदा मिलने को लेकर देश में लंबे समय से सवाल उठाये जाते रहे हैं। वजह थी कि किस दल को किस व्यक्ति से चंदा मिला है, सार्वजनिक नहीं होता था। यह भी पता नहीं चलता किस व्यक्ति ने बॉन्ड खरीदे हैं और कितने रुपये के बॉन्ड खरीदे हैं। आमतौर पर सत्तारूढ़ दल को इस चंदे का ज्यादा लाभ मिलता रहा है। यही वजह है कि शीर्ष अदालत ने इसे असंवैधानिक कहा और इसे सूचना के अधिकार का अतिक्रमण बताया। साथ ही चिंता यह भी थी कि कहीं बड़ी कंपनियां गुपचुप तरीके से मोटा चंदा देकर कालांतर सरकारों के फैसले को प्रभावित करने के खेल में न लग जाएं। साथ ही अनुचित कार्यों के लिये लाभ उठाने के लिये दबाव बनाएं। राजनीतिक दल यह भी आरोप लगाते रहे हैं कि बैंकों के पास इस बॉन्ड के लेन-देन की पर्याप्त जानकारी होती है, जिसका उपयोग सरकार अपने हित और राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिये कर सकती है। लोकतांत्रिक अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले संगठन इस फैसले को कॉपोरेट जगत की चंदा देने की सीमा निर्धारित करने वाला बता रहे हैं। जिससे बड़े पूंजीपतियों की चुनावी प्रक्रिया में दखल पर अंकुश लग सकेगा। सूचना अधिकार समर्थक भी इसे अपनी बड़ी जीत बता रहे हैं। जानकार बता रहे हैं कि कोर्ट के इस फैसले का आसन्न आम चुनावों पर खासा असर पड़ सकता है। बहरहाल, इस फैसले के आलोक में इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि अन्य स्रोतों से राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की निगरानी कैसे हो सकती है। सरकार कह सकती है कि इस रोक से देश की चुनावी प्रक्रिया में कालेधन को बढ़ावा मिल सकता है। उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार ने इस योजना की घोषणा वर्ष 2017 में की थी और जनवरी 2018 में इसे लागू भी कर दिया था। इसके अंतर्गत एक हजार से लेकर एक करोड़ मूल्य तक के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे जा सकते थे। विपक्षी दल इस योजना का ज्यादा लाभ सतारूढ़ दलों को होने की बात कहते रहे हैं।