पर्व के दोहे
राधेश्याम शुक्ल
आया सावन- ‘डाकिया’, घर-आंगन गाम।
‘पीहर’ की चिट्टी लिये, ‘धी-बेटी’ के नाम॥
पाकर बहनें, बेटियां, पीहर की सौगात।
‘सुधियों’ से करने लगीं, ‘जनम-जनम’ की बात॥
अम्मा ने ‘आंसू’ लिखे, लिखा पिता ने, ‘नेह’।
‘भैया-भाभी’ ने लिखा, ‘मोह-माया’ का मेह॥
भाभी ने दीं चूड़ियां, माथे का सिन्दूर।
और कहा है—ननद जी, सुख भोगो भरपूर॥
चना-चबेना, कोथली और साज शृंगार।
प्यारी बहिना के लिए, भैया का उपहार॥
‘मेहंदी’ चहकी हाथ में, खिला ‘महावर’ पांव।
‘कंजली’ झूले पर चढ़ी, घनी नीम की छांव॥
बहन-बेटियां ‘दर्द’ हैं, ‘मछरी’ की औकात।
अंगारों के बीच में, ये ‘पानी’ की जात॥
पिंजरे की ‘मैना’ कहे, बहे पसीज-पसीज।
‘सावन’ फिर-फिर आइयो, ले हरियाली तीज॥
जाना बादल ‘वीरना’, तुम पीहर के देश।
कहना मां की ‘पीर’ से, बेटी का सन्देश॥
बना रहे ‘पीहर’ सदा, सुखी रहे दहलीज।
अम्मां-बाबूजी सहित, भैया और ‘भतीज’॥
भाभी, मुझे न भूलना, रखना सदा दुलार।
मैं पंछी पिंजरे बसी, सात समन्दर पार॥
‘राखी’ तू बंध जाइयो, ‘बिरना जी’ के हाथ।
करियो मंगलकामना, बना रहे यों साथ॥