खास मायने हैं हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सहकार के
हिंद-प्रशांत सेना प्रमुखों की नई दिल्ली में बैठक का कल आखि़री दिन था। पच्चीस से 27 सितंबर को आहूत इंडो-पैसेफिक आर्मी चीफ्स कॉन्फ्रेंस (आईपीएसीसी) में सुरक्षा सहकार पर व्यापक चर्चा हुई। यदि इस पर अमल हुआ, तो मानकर चलिए कि इंडो-पैसेफिक इलाके में रणनीतिक तस्वीर बदल जाएगी। चीन और रूस इस बैठक को लेकर चौकन्ने हैं। भारतीय सेना और अमेरिकी आर्मी के लोग 13वीं आईपीएसीसी बैठक को ‘को-होस्ट’ कर रहे थे। जी-20 के बाद यह दूसरी महत्वपूर्ण बैठक दिल्ली कैंट के मानिक शॉ सेंटर में हुई, जिस पर नज़र रखने वाले रक्षा रणनीतिकार मानते हैं कि अमेरिका ने अपनी लॉबी की मज़बूती का प्रयास किया है।
आईपीएसीसी की इस बैठक में 30 देशों के प्रतिनिधि और 20 देशों के सेना प्रमुख पधारे थे। बैठक का स्लोगन था- ‘हिंद-प्रशांत में शांति व स्थिरता के लिए हम सब एक हैं।’ भारतीय सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे ने ऑस्ट्रेलियाई सेना के प्रमुख जनरल साइमन स्टुअर्ट, जापानी सेल्फ डिफेंस सेना प्रमुख जनरल मोरीशिता यासुनोरी, अमेरिकी सेना प्रमुख जनरल रैंडी जॉर्ज, वियतनाम के उप सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल गुयेन दोआन अन्ह के साथ बातचीत की। सम्मेलन में केन्याई सेना के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल पीटर म्बोगो नजीरू भी उपस्थित थे।
बैठक में विमर्श का लब्बो-लुआब यह था कि हिंद-प्रशांत का इलाक़ा समकालीन भू-रणनीतिक परिदृश्य में सेंटर स्टेज रूप धारण कर चुका है। जिन विषयों को सुरक्षा के साथ समग्रता में देखे जाने की आवश्यकता है, उनमें राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरण का विशेष महत्व है। बैठक के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में जनरल पांडे ने जो थोड़ी-बहुत जानकारी साझा की, उसमें इन्हीं विषयों को फोकस किया था।
अमेरिकी सेना प्रमुख जनरल रैंडी जॉर्ज ने स्पष्ट किया कि ज़मीनी युद्ध के तौर-तरीके जिस तेज़ी से बदल रहे हैं, उसे देखते हुए रणनीति में बदलाव आज की आवश्यकता है। सेनाओं में अपने मानकों में बदलाव और पेशेवराना मज़बूती पर ज़ोर देने का समय आ गया है। हमें एकता और सामूहिक प्रतिबद्धता की भावनाओं को समझना है। हालांकि भारतीय सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे ने पत्रकारों से स्पष्ट किया कि इस बैठक को सैन्य गठजोड़ बनाने की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह किसी देश या समूह के विरुद्ध किसी क़िस्म का मोर्चा नहीं है।
इस बैठक से कुछ दिन पहले एक ख़बर आई कि अमेरिकी आयुध निर्माण में भारत सहकार करेेगा। जब अमेरिकी हथियार भारत में बनेंगे, तो वह किस बाज़ार में आपूर्ति करेगा? इस देश की कौन-सी निजी कंपनियां आयुध निर्माण में आएंगी? ये सवाल रक्षा विश्लेषक करते तो हैं, मगर उन सूचनाओं को साझा करने में सेना के बड़े अधिकारी अब भी परहेज करते हैं। उदाहरण के लिए, छोटे हथियार निर्माण में जिंदल आर्म्स का नाम 2020 में सामने आया था, जिसमें ब्राज़ील के ‘ताउरूस आर्मास’ से उसका समझौता हुआ था। मगर, बात अमेरिकी आयुध कंपनियों से सहकार की है। जो सेना प्रमुख नई दिल्ली की बैठक में आये थे, उनके गिर्द हथियार लॉबी मंडरा रही थी, इस बात को हम बमुश्किल नज़रअंदाज़ कर सकते थे।
यह रोचक है कि कनाडा से बिगड़ते संबंध वाले माहौल में भी उसके उप सेना प्रमुख मेजर जनरल पीटर स्कॉट नई दिल्ली आये हुए थे। उन्होंने बयान दिया कि कनाडा उन अवसरों की तलाश में रहता है, जहां हम हिंद-प्रशांत क्षेत्र के भागीदारों के साथ अभ्यास में भाग ले सकें। यह सम्मेलन हमें समान हितों वाले देशों के नेताओं से मेल-मुलाक़ात का एक मंच प्रदान करता है।
आईपीएसीसी, 1999 में एक द्विवार्षिक कार्यक्रम के रूप में शुरू किया गया था, जो सामरिक हितों पर चर्चा करने के लिए भारत-प्रशांत क्षेत्र के देशों के सेना प्रमुखों को एक मंच पर लाता है। हर दो वर्ष पर सदस्य देशों के सेना प्रमुख विमर्श के लिए मिलते हैं। नवंबर 2022 में भारत-अमेरिकी सेना ने उत्तराखंड के औली में जो युद्धाभ्यास किया था, उसे लेकर चीन ने घोर आपत्ति की थी। जबकि यह इलाका एलएसी से 100 किलोमीटर दूर था। इसे ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि भारतीय सैनिकों ने अमेरिका के अलास्का फोर्ट वाइनराइट में 25 सितंबर से साझा युद्धाभ्यास आरंभ किया है, जो 8 अक्तूूबर 2023 तक चलेगा। इस युद्धाभ्यास को हम आईपीएसीसी का अहम हिस्सा मान सकते हैं। भारत-अमेरिका के बीच ज्वाइंट मिल्ट्री एक्सरसाइज ऐसे समय हो रही है, जब नई दिल्ली में आईपीएसीसी की बैठक चल रही है।
जो कुछ हो रहा है, उससे रूस और चीन के रक्षा विशेषज्ञ यह तो मानकर चल रहे हैं कि भारत धीरे-धीरे हिंद-प्रशांत इलाके में नाटो जैसे मिल्ट्री अलायंस की ओर उन्मुख हो रहा है। हम गुटनिरपेक्ष रह पायेंगे? इन घटनाओं के हवाले से कोई भी यह सवाल पूछेगा। बाइडेन अपनी कूटनीति की धार हिंद-प्रशांत में क्यों तेज़ करना चाहते हैं? फरवरी 2022 में व्हाइट हाउस ने ‘इंडो-पैसेफिक स्ट्रैटिजी’ शीर्षक से 19 पेज का दस्तावेज़ जारी किया था, जिसमें हिंद-प्रशांत में जो बाइडेन प्रशासन को क्या कुछ करना है, उसकी रूपरेखा तैयार की गई थी।
‘द इंडो-पैसेफिक प्रॉमिस’ चैप्टर के चौथे-पांचवें पेज पर लिखा है, ‘दो सौ साल से अमेरिकी उपस्थिति एशिया प्रशांत में रही है। अमेरिका, इंडो-पैसेफिक पॉवर है। प्रशांत से हिंद महासागर तक का तटीय इलाक़ा, जहां दुनिया की आधी आबादी रहती है। बता दें कि 30 लाख अमेरिकी जॉब और 900 अरब डॉलर का निवेश एशिया-प्रशांत में है। सहयोग के इस सिलसिले को जार्ज डब्ल्यु बुश प्रशासन ने आगे बढ़ाया था, उनके समय चीनी गणराज्य, जापान और भारत को महत्व दिया गया, उन्हें इंगेज रखा गया। ओबामा प्रशासन ने हिंद-प्रशांत में नये आर्थिक, कूटनीतिक और सैन्य सहयोग के आयामों को प्राथमिकता दी। ट्रंप प्रशासन ने भी इंडो-पैसेफिक को विश्व कूटनीति का गुरुत्वाकर्षण माना था।’
राष्ट्रपति जो बाइडेन मानते हैं कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) इस इलाके में अपना आर्थिक, तकनीकी और सैन्य प्रभुत्व बढ़ाने का लक्ष्य निर्धारित कर चुका है। उन्नीस पन्नों के दस्तावेज पढ़ने पर इतना तो साफ हो जाता है कि जो बाइडेन प्रशासन ने हिंद-प्रशांत को एक नया अखाड़ा बनाना तय कर लिया है। सवाल यह है कि प्रधानमंत्री मोदी क्या जो बाइडेन के एजेंडे के तहत 23 मई 2023 को पापुआ न्यू गिनी के प्रधानमंत्री से मिलने गये थे? कॉमनवेल्थ का सदस्य पापुआ न्यू गिनी गुटनिरपेक्ष आंदोलन में भी सहभागी रहा है। लेकिन यह तो मान ही लीजिए कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन का फालूदा बन चुका है। सबसे दिलचस्प यह कि जो भी नेता या डिप्लोमेट हिंद-प्रशांत की ओर भ्रमण के लिए निकलता है, उसके बयानों में इलाके को वैभव व स्थिरता देने की बात अवश्य होती है।
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नयी दिल्ली संपादक हैं।