सृजन के सरोकारों में प्रतिबिंबित चिंतन दृष्टि
अरुण नैथानी
देश के मौजूदा परिदृश्य में सत्तारूढ़ दल के चिंतन आदर्श और विपक्ष के तीखे हमलों के बीच विनायक दामोदर सावरकर पिछले एक दशक में खासे चर्चा में रहे हैं। राजाश्रय में उनके चिंतन को विस्तार मिला है। लेखकों ने भी सत्ता के वैचारिक प्रवाह की सुविधा के अनुरूप उन पर खूब लिखा है। लेकिन किसी भी विशिष्ट व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते समय तत्कालीन परिवेश और विपरीत परिस्थितियों का मंथन जरूरी है। निस्संदेह, एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में वीर सावरकर के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कालेज में हिंदी विभाग के प्रोफेसर डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला की पुस्तक ‘सावरकर की चिंतन दृष्टि’ वीर सावरकर के सृजन के जरिये उनके जीवन के नये आयामों पर प्रकाश डालती है। रचनाकार ने सावरकर के नाटकों के जरिये परतंत्र देश में स्वातंत्र्य चेतना जगाने के प्रयासों से पाठकों को रूबरू कराने का प्रयास किया है। रचनाकार ने बताने का प्रयास किया है कि कैसे सावरकर ने अपनी साहित्यिक रचनाओं के जरिये सामाजिक कुरीतियों, अमानवीय प्रथाओं तथा छुआछूत आदि पर तीखे प्रहार किये। ताकि देश एकजुट होकर गुलामी की बेड़ियां तोड़ने को प्राणपण से जुटे।
दरअसल, किसी भी कालखंड का साहित्य युगीन प्रवृत्तियों का आईना ही होता है। उसके जरिये लेखक की वैचारिक दृष्टि को समझने में मदद मिलती है। जिससे रचनाकार के सामाजिक अवदान का मूल्यांकन भी संभव होता है। इस मकसद से रचनाकार डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला ने वीर सावरकर के चार नाटकों व कुछ विशिष्ट कविताओं के जरिये उनके दृष्टिकोण को समझाने का प्रयास किया है। जिसमें ‘संगीत उ: श्राप’, ‘संगीत बोधिवृक्ष’, ‘संगीत संन्यस्त खड्ग’ व ‘संगीत उत्तरक्रिया’ नाटक शामिल हैं। ये रचनाएं क्रमश: अछूतोद्धार की जरूरत व धर्म परिवर्तन के संकट, बुद्धदर्शन से वीरता, शास्त्र व शस्त्र की उपयोगिता तथा जर्जर बेड़ियों को तोड़ अस्मिता की रक्षा जैसे विचारोत्तेजक विषयों पर केंद्रित हैं। वहीं स्वातंत्र्य चेतना जगा क्रांतिवीरों का आत्मबल बढ़ाने वाली वीर सावरकर की कविताओं के जरिये रचनाकार ने उनकी चिंतन दृष्टि से रुबरू कराया है।