संविधान जड़ों का
दिविक रमेश
पकड़ा तो गया था
लगा था जैसे पकड़ लिया हो
वृक्ष ने
मेरे मन को, भीतर घुस कर।
झकझोरते हुए मेरे दिमाग को
बोला था वृक्ष
क्यों हो रहे हो कभी गुमसुम
तो कभी क्यों फाड़ रहे हो आंखें
मुझे देखकर।
क्या व्यवधान हूं सैर में?
नहीं, नहीं!
कहा था मैंने
थोड़ा झेंपकर।
समझ रहा हूं,
बोला था वृक्ष ही
इस बार कुछ सहज होकर
यही सोच रहे हो न
कि पत्ते चाहे नीचे के तने के हों
या तने के बीच के
अथवा ऊपर की टहनियों के,
सब एक-से हरे हैं,
एक-से फूले-फले।
दिख रहे हों बंटे हुए
भले ही अलग-अलग
रह रहे हों भले ही
वृक्ष में अलग-अलग
पर एक हैं,
यही बस राजनीति है वृक्ष की
और उसका लोकतंत्र भी।
और सुनो मनुष्य
कहो अपनी दुनिया में जाकर
कि भले ही
अलग-अलग निजता हो,
हर अंग के पत्तों की,
पर संविधान एक ही है
जड़ों का
सबके लिए।
जड़ें रहती हैं ऊपर
राजनीति के किसी भी स्वार्थ से
बिना हिले-डुले
हवाओं के चलताऊ झोंको से।
जड़ें नहीं चाहती
रहे कोई भी वंचित
चाहे वे कम हों या ज्यादा
किसी भी अंग में
वृक्ष के।