वर्गीय विभाजन की चिंताएं
केवल तिवारी
डॉ. धर्मचंद विद्यालंकार की हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘आरक्षण की व्यवस्था और सामाजिक न्याय’ में प्राचीन एवं पौराणिक संदर्भों का हवाला देते हुए वर्तमान परिदृश्य पर विवेचना की गयी है। कुछ किताबों का समीक्षात्मक संदर्भ देते हुए विभिन्न जातीय, वर्गीय समीकरणों को सियासत की कसौटी पर परखते हुए लेखक ने एकतरफा मत-मतांतर या विवेचन के परिणामों के प्रति आगाह किया है। आरक्षण संबंधी आंदोलनों एवं उनकी स्थिति की भी चर्चा किताब में की गयी है।
कुल 17 शीर्षक खंडों में विभाजित पुस्तक जहां विभिन्न जातियों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर नजर डालने की कोशिश करती है, वहीं इस बात के खिलाफ भी इसमें पढ़ने को मिलता है जिसमें गत 70 सालों में ‘कुछ नहीं’ होने को प्रचारित करने की कोशिश की जाती है।
लेखक ने अपनी बात के समर्थन में कई तर्क और ऐतिहासिक संदर्भ दिए हैं। किताब के नाम के पर लगता है कि इसमें आरक्षण के किंतु-परंतु या आवश्यकता पर संपूर्ण विवेचन मिलेगा, लेकिन विभिन्न आंदोलनों और उसके निहितार्थ को समझाने की कोशिश की गयी है।
सरल भाषा में रचित पुस्तक के कई अंशों पर बहस-मुबाहिशों की पूरी गुंजाइश है। इसमें कई अंशों को ‘हाईलाइट’ किया गया है। अनेक प्रकरणों में ज्यादातार उत्तर प्रदेश, हरियाणा एवं राजस्थान से सबंधित आंदोलनों का हवाला है। प्रसंगत: यही इलाके ज्यादातर आरक्षण संबंधी आंदोलनों के गवाह रहे हैं।