मरीजों की फिक्र
कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में सहकर्मी से दुराचार व हत्या के विरोध में आंदोलित जूनियर डॉक्टरों को देशव्यापी समर्थन मिलता रहा है। राज्य में भी उन्हें व्यापक सहानुभूति मिली है। निस्संदेह कार्यस्थल पर महिला डॉक्टरों की सुरक्षा व न्याय की उनकी मांग तार्किक ही है। लेकिन इसके बावजूद लंबे समय तक चिकित्सा सेवाओं को ठप नहीं किया जा सकता। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि सरकारी अस्पतालों में वे ही मरीज उपचार के लिये आते हैं, जो महंगे अस्पतालों में इलाज नहीं करा पाते। पश्चिम बंगाल सरकार कह रही है कि हड़ताल शुरू होने के बाद उपचार के अभाव में 23 मरीजों की जान चली गई है। ऐसे में हड़ताली डॉक्टरों को तुरंत काम पर लौटना चाहिए। उन्हें सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करना चाहिए था। लेकिन विडंबना है कि हड़ताली जूनियर डॉक्टरों ने मंगलवार तक काम पर लौटने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को नजरअंदाज किया। एक माह से जारी हड़ताल से चिकित्सा सुविधाओं का बाधित होना स्वाभाविक है। सार्वजनिक सेवाओं में, विशेष रूप से स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र गहन जिम्मेदारी की मांग करता है। असंख्य रोगियों का जीवन चिकित्सा पेशेवरों की उपलब्धता पर निर्भर करता है। लंबे समय से डॉक्टरों की अस्पतालों में अनुपस्थिति से हजारों मरीजों को दर-दर की ठोकरें खाते देखा गया है। राज्य सरकार का दावा है कि करीब छह लाख से अधिक मरीज इस हड़ताल के कारण आवश्यक उपचार से वंचित हो गए। निस्संदेह, ये आंकड़े सोचने को विवश करते हैं कि किसी हड़ताल का यथार्थ में कितना व्यापक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वैसे सुप्रीम कोर्ट ने हड़ताली डॉक्टरों की प्रति सहानुभूति व्यक्त की है, लेकिन साथ ही चेताया भी कि उनका विरोध प्रदर्शन उनकी ड्यूटी की कीमत पर नहीं हो सकता। साथ ही आश्वासन भी दिया है कि अस्पतालों में सीसीटीवी कैमरा लगाने तथा महिला कर्मचारियों के लिये अलग ड्यूटी रूम बनाये जाने जैसे सुरक्षा उपायों को अविलंब क्रियान्वित किया जाएगा।
निस्संदेह, डॉक्टरों को देश की न्यायिक प्रक्रिया पर विश्वास कायम रखना चाहिए और अपनी ड्यूटी को अविलंब आरंभ कर देना चाहिए। उनकी अस्पतालों में अनुपस्थिति जहां रोगियों की मुश्किलें बढ़ाती है, वहीं चिकित्सा जैसे आदर्श पेशे के प्रति जनता के विश्वास को भी घटाती है। यही वजह है, अदालत को कहना पड़ा कि आदेश के पालन से इनकार करने पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है। इसमें दो राय कि देश के चिकित्सा संस्थानों तथा अस्पतालों में असुरक्षित कामकाजी परिस्थितियों को लेकर व्यक्त की जा रही चिंताओं से सहमत हुआ जा सकता है। इन मुद्दों का अविलंब निस्तारण होना भी चाहिए। लेकिन उन्हें इस बात का भी अहसास होना चाहिए कि लंबे समय तक इस तरह की अवज्ञा न्याय को कमजोर करती है। निस्संदेह, पश्चिम बंगाल के चिकित्सकों के अपने काम पर लौटने का वक्त आ गया है। जिससे उपचार तथा न्याय बिना देरी के आगे बढ़ सकें। लेकिन साथ ही राज्य सरकार को भी आत्ममंथन करना चाहिए कि क्यों चिकित्सा बिरादरी व आम लोगों में उसकी कारगुजारी को लेकर अविश्वास पैदा हुआ है। क्यों कलकत्ता हाईकोर्ट को मामले की जांच सीबीआई को सौंपनी पड़ी। आखिर क्यों इस मामले में अभियुक्त व मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल की गिरफ्तारी के बाद भी आक्रोशित डॉक्टरों का भरोसा नहीं लौट रहा है। निस्संदेह, ये हालत शासन-प्रशासन की कारगुजारियों पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं। वहीं दूसरी ओर हड़ताली डॉक्टरों व कर्मचारियों को नोटिस दिए जाने से भी बात बनती नजर नहीं आ रही है। लेकिन एक बात तो साफ है कि सरकार व हड़ताली डॉक्टरों व कर्मचारियों में टकराव की कीमत मरीजों को चुकानी पड़ रही है। वैसे कोई भी सरकार दावा नहीं कर सकती कि उसके यहां अपराध नहीं होते और भविष्य में नहीं होंगे। लेकिन इसके बावजूद किसी भी वारदात के बाद शासन-प्रशासन से संवेदनशील व्यवहार की तो उम्मीद की ही जानी चाहिए। इस मामले में ममता सरकार से कई मामलों में चूक हुई है, जिसके चलते डॉक्टरों को सड़कों पर उतरना पड़ा है। उन्हें आशंका थी कि शायद पीड़िता को न्याय न मिल सके। बहरहाल, संकट का शीघ्र समाधान जरूरी है।