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महिला वोट बैंक को लुभाने की होड़

08:07 AM Apr 17, 2024 IST

उमेश चतुर्वेदी

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चुनाव की तारीखों की घोषणा करते वक्त चुनाव आयोग ने एक ऐसा आंकड़ा दिया था, जो बदलते भारतीय समाज की कहानी कह रहा है। आयोग के मुताबिक देश के बारह राज्य ऐसे हैं, जहां महिला वोटरों की संख्या पुरुष मतदाताओं की तुलना में ज्यादा है। निस्संदेह पिछले कुछ चुनावों से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी और स्वायत्त फैसले लेने की प्रवृत्ति का नतीजा नजर आने लगा है।
लोकतांत्रिक और शासन प्रक्रिया के राजनीतिक दल ऐसे अंग हैं, जिनके प्रति समाज के एक बड़े तबके की सोच बेहतर नहीं है। इस वजह से राजनीतिक दल को लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अनिवार्य बुराई मानने वालों की संख्या भी कम नहीं है। लेकिन इसके बावजूद राजनीतिक दलों का शीर्ष नेतृत्व की सोच और उनका नजरिया कहीं ज्यादा गहरा और दूरंदेशी होता है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने पारंपरिक चतुर्वणीय व्यवस्था की बजाय समाज में चार जातियों के रूप में महिला, युवा, गरीब और किसान की पहचान की। चुनावी प्रक्रिया का गहराई से विश्लेषण करें तो पाएंगे कि ये चारों वर्ग मतदान के रुख और मुद्दों को प्रभावित करने का ठोस आधार रखते हैं। तकनीक और संचार क्रांति के भारत में महिलाएं और नौजवान चुनावी उपभोक्ता और ग्राहक-दोनों के रूप में उभरकर सामने आए हैं।
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि के पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा की आशातीत सफलता की वजह महिलाएं मानी गईं। चुनावी जानकार कल्याण योजनाओं के जरिए उपजे नए वर्ग में महिलाओं की भारी संख्या को सम्मिलित मानता है। पुरुषों की तुलना में महिला वोटरों की ज्यादा संख्या और बेहतर लिंग अनुपात वाले इलाकों के लोकसभा चुनाव नतीजों पर इनका प्रभाव नजर आता है।
चुनाव आयोग के आंकड़े के मुताबिक तुलनात्मक रूप से ज्यादा महिला वोटर और बेहतर लिंग समानता वाले इलाकों से 143 लोकसभा सीटें आती हैं। इनमें बीजेपी के सांसदों की संख्या 40 है। महिला वर्चस्व या बेहतर लिंगानुपात वाली इन सीटों पर 29 सांसदों के साथ कांग्रेस दूसरे नंबर पर है। तीसरे नंबर पर 17 सीटों के साथ डीएमके है तो चौथे नंबर पर वाईएसआर कांग्रेस है, जिसके दस सांसद हैं। आठ सांसदों के साथ जेडी यू इस लिस्ट में पांचवें नंबर पर है। जबकि बाकी 39 सीटों पर अन्य दलों के सांसद चुने गए हैं।
बेशक महिलाएं अब मतदान में अपनी स्वायत्त सोच का परिचय दे रही हैं। महिलाएं अब पहले की तरह अपने घर के पुरुषों के पसंद वाले दलों और प्रत्याशियों को वोट नहीं दे रहीं, बल्कि अपनी पसंद वाले प्रत्याशी और दल वोट दे रही हैं। यहां ध्यान देने की बात यह है कि महिला प्रधान ये ज्यादातर सीटें उत्तर पूर्व, पूर्व और दक्षिण भारत के राज्यों में हैं। इन राज्यों में ज्यादातर चुनाव पहले से तीसरे दौर में ही खत्म हो जाना है। इसलिए सभी दलों ने महिला वोटरों को लुभाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। पूर्वी भारत के राज्य बंगाल में संदेशखाली का मुद्दा उठाना हो, या दक्षिण भारत की महिलाओं को उनकी सोच के मुताबिक सांस्कृतिक सम्मान बढ़ाने की बात हो या फिर उत्तर पूर्वी राज्यों में बेहतर शासन व्यवस्था देने की बात हो, राजनीतिक दल उन्हें लुभाने की कोशिश में हैं। इस मुिहम में प्रधानमंत्री व अमित शाह के साथ राहुल गांधी भी महिला सम्मान की बात जगह-जगह उठा रहे हैं।
महिला प्रधान उत्तर पूर्व में 25 सीटें आती हैं। जिनमें पिछले चुनाव में बीजेपी को 21 सीटें मिली थीं। पिछली बार उसे चुनौती शरद पवार की एनसीपी और ममता बनर्जी की टीएमसी ने देने की कोशिश की थी। बीजेपी के लिए मणिपुर की हिंसा जरूर असहज स्थिति पैदा कर रही है। कांग्रेस रह-रहकर मणिपुर का सवाल उठा रही है। मणिपुर में बेशक संघर्ष लंबा चला, लेकिन यह भी सच है कि वहां ज्यादातर आंदोलन महिलाओं के ही हाथ में रहता है।
यह सच है कि महिला प्रधान सीटों पर भी चुनाव नतीजों को सिर्फ महिलाओं का मतदान ही प्रभावित नहीं कर रहा। हर सीट पर दूसरे भी कारक किसी खास प्रत्याशी के पक्ष या विपक्ष में मतदान को प्रभावित करते हैं। जिसकी वजह से नतीजों पर असर पड़ता है। लेकिन यह भी सच है कि महिलाएं अब उसी तरह नया वोट बैंक बन रही हैं, जैसे उत्तर भारत में जातीय और धार्मिक समूह वोट बैंक बनते रहे हैं।
निस्संदेह, सामाजिक जागरूकता, शैक्षिक स्तर में वृद्धि व आधुनिक संचार माध्यमों ने महिलाओं की अभिव्यक्ति को नये आयाम दिये हैं।  यही वजह कि अब महिलाओं को साधने की कोशिश में देश के तमाम राजनीतिक दल भी जुट रहे हैं। फिलहाल इस दौड़ में बीजेपी और उसके अगुआ ज्यादा आगे दिख रहे हैं। यह बात और है कि सीमित ही सही, दिल्ली और पंजाब जैसे राज्यों में आम आदमी पार्टी इस दौड़ में शामिल दिख रही है। उसकी कोशिश भी महिला मतदाताओं को जोड़ने की है।

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