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मुकाबले को कर्मशील उद्यमी संस्कृति की जरूरत

06:45 AM Nov 06, 2023 IST
सुरेश सेठ

देश में बेकारी के बढ़ते आंकड़े चौंकाने वाले हैं। प्रत्येक सरकार दावा करती है कि वह जनकल्याण के प्रति प्रतिबद्ध है। किसी को भी भूख से मरने नहीं देंगे, इसीलिए अनुकम्पा या उदारता के नाम पर सस्ता अनाज 80 करोड़ जनता में बांटकर, जनकल्याण का रिकार्ड बनाया जा रहा है। सर्वेक्षण बताते हैं कि अब रोजगार खिड़कियों पर इतनी भीड़ नहीं लगती। अब भूख से लोग नहीं मरते। पिछले दस सालों में देश विश्व में दसवीं आर्थिक शक्ति की जगह पांचवीं आर्थिक शक्ति बन गया। शीघ्र ही देश को तीसरी आर्थिक शक्ति बना देने के दावे हैं। लेकिन यह कैसा विकास जहां नई शिक्षा नीति की घोषणा के रोजगारपरक होने के बावजूद नई पीढ़ी को उचित रोजगार नहीं मिलता। वे रोजगार संभावनाओं से निराश होकर नशे के आदी हाे रहे हैं या बेहतर जिंदगी की तलाश में विदेशों की ओर पलायन कर रहे हैं।
प्रत्येक राज्य की सरकारें यही कहती हैं कि हम बेकारी की समस्या को प्राथमिकता से हल करेंगे। वर्षों से चलती हुई कच्ची अासामियों को पक्का कर देंगे। अब इस चुनावी मौसम में, जो पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा के बाद शुरू होने जा रहा है। हम नये नियुक्ति पत्र बांटकर नौजवानों को रोजगार देकर वर्षों पुरानी समस्या का समाधान कर देंगे। लेकिन बेकारी की समस्या का यह कैसा निदान‍? नई नौकरियों के विज्ञापनों की बाढ़ उसकी हामी नहीं भरती। ऐसी किसी रोजगार नीति की घोषणा नहीं होती, जिससे बेरोजगार नौजवान को उसकी शिक्षा और योग्यता के अनुसार स्वत: रोजगार मिल जाएगा। मजबूर होकर उच्च योग्यता वाले ही नहीं बल्कि डॉक्टरेट की योग्यता वाले नौजवान भी तीसरे दर्जे तक की नौकरियों के लिए आवेदन कर रहे हैं।
पिछले दिनों पंजाब में पुलिस कांस्टेबलों की भर्ती के लिए बेकारों की कतार में एम.ए. और पीएचडी वाले भी खड़े थे। जबकि नौकरी की योग्यता केवल दसवीं थी। देश में केरल को शिक्षित राज्य माना जाता है। अभी पिछले दिनों सरकारी कार्यालयों के लिए चपरासी की नौकरी के विज्ञापन निकले। जिसकी शैक्षणिक योग्यता सातवीं पास और साइकिल चलाने का ज्ञान। विडंबना यह थी कि जिन उम्मीदवारों की कतार लगी, उनमें बी.टेक. ग्रेजुएट, बैंकिंग के डिप्लोमाधारी और शोध छात्र थे। क्योंकि यहां साइकिल चलाने की योग्यता अपेक्षित थी, फिर भी उच्च शिक्षा प्राप्त साइकिल चलाना सीखते भी देखे गए। जहां तक बेरोजगारी के आंकड़ों का संबंध है, बेकारी से जूझने की नीतियां अब वह प्राथमिकता नहीं पातीं, जितना हमारे चुनावी एजेंडे में रियायती रेवड़ियां बांटने की परम्परा है। सवाल उठता है कि भूखे को रोटी तो देंगे लेकिन उसे यथोचित नौकरी की गारंटी क्यों नहीं? पढ़ा-लिखा या अनपढ़ शारीरिक श्रम से ही अपनी जिंदगी गुजारने की सोचता है। नौकरी न मिले तो सोचता है कि पढ़ने-लिखने की क्या जरूरत, कोई शार्टकट तलाश करो और मजे से जिंदगी जीयो। बेरोजगार युवा वर्ग को जब तक यथोचित नौकरी नहीं मिलती, शिक्षा की नीति पुरानी हो या नयी, निरर्थक-सी लगने लगती है। जब भी चुनावों की घोषणा होती है, पार्टी के चुनावी एजेंडे में नई नौकरियां पैदा करने की कोई सार्थक नीति सामने नहीं आती।
अब पिछले दशक में पैदा हुई नई नौकरियों की बात करें तो पाते हैं कि पुरानी शिक्षा और कोर्सों के चलते आज के इंटरनेट और डिजिटल समय में वे युवा तालमेल नहीं बिठा पाते। आंकड़े बता रहे हैं कि कंप्यूटर या साइबर क्षेत्र में नौकरियां खाली पड़ी हैं। नये सर्वेक्षण बता रहे हैं कि निजी क्षेत्र में जहां नई नौकरियां पैदा होने की संभावना है, नौजवानों की अपेक्षा अधेड़ उम्र लोगों को देने का प्रचलन ज्यादा दिख रहा है। उनका मानना है कि इन लोगों के पास अनुभव ज्यादा होता है, साथ ही प्रशिक्षित होते हैं, इनसे गलतियां होने की संभावनाएं कम रहती हैं। यह तो कोई तर्क नहीं।
सवाल उठता है कि अगर इन नौकरियों के लिए युवा योग्य नहीं है तो दोष उन शिक्षा परिसरों का है जो अपेक्षाओं के मुताबिक अपने कोर्सों में समय के साथ सिलेबस में परिवर्तन नहीं कर पाए। पुराने टीचर पुराने ढंग से पुरानी डिग्रियों की पढ़ाई करवा रहे हैं। डिजिटल क्षेत्र में निपुणता प्राप्त करने के लिए प्रयास नहीं किये जा रहे। इसका एक कारण अध्यापकों ने नये सिलेबस, नये कोर्सों के मुताबिक अपने आप को प्रशिक्षित नहीं किया। इस कारण वे शिक्षा के क्षेत्र में नई अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहे। इसके अलावा देश में निजी क्षेत्र के विस्तार के साथ-साथ बड़े उद्योगपतियों ने स्वचालित मशीनों वाली फैक्टरियां लगा लीं। इसके कारण भी काम की अपेक्षा रखने वाले नौजवानों को रोजगार नहीं मिलता। उन्हें रोजगार दिया जा सकता था, लघु और कुटीर उद्योगों के विस्तार के साथ।

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लेखक साहित्यकार हैं।

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