समान संहिता का प्रश्न
निस्संदेह, भारत विविधताओं का देश है। विश्वास, संस्कृति व परंपराओं की विविधता उसके मूल में रही है। गाहे-बगाहे देश में समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठता रहा है। इस मुद्दे को लेकर राजनीति भी जमकर होती रही है। भाजपा के एजेंडे में शामिल मुद्दे को कांग्रेस समेत कई दल ध्रुवीकरण की कोशिशों के रूप में देखते रहे हैं। विधि आयोग की हालिया पहल ने इस मुद्दे को फिर चर्चा में ला दिया है। आयोग ने देश के हर नागरिक को इस बाबत अपने विचार प्रस्तुत करने का अधिकार दिया है। उल्लेखनीय है कि भारत का संविधान तैयार करने की प्रक्रिया के दौरान भी समान नागरिक संहिता का मुद्दा खासी चर्चा में रहा था। तब भरोसा जताया गया था कि इस लोकतांत्रिक देश में कालांतर में समान नागरिक संहिता लागू करने को मूर्त रूप देने का अवसर आएगा। दरअसल, तब संविधान सभा के कई दिग्गज इसके पक्ष में थे, लेकिन भारतीय समाज की जटिलता और तत्कालीन संवेदनशील स्थिति के चलते इस पर निर्णायक फैसला नहीं हो सका था। बाद में स्वतंत्र भारत में कई बार संसद व विधानसभाओं में इस मुद्दे पर खूब चर्चा होती रही। अब इसी कड़ी में व्यापक आधार रखने वाले धार्मिक संगठनों की इस मुद्दे पर राय मांगी गई है। दरअसल, इस जटिल विषय पर समान संहिता बनाना ही अंतिम हल नहीं है, उसका क्रियान्यवन भी उतना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। अलग-अलग धार्मिक समूहों को साथ लेकर आगे बढ़ना आसान भी नहीं होगा। फिर अगले साल होने वाले आम चुनाव व इस साल के अंत तक कई महत्वपूर्ण राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर इस मामले के सरगर्म रहने के आसार हैं।
दरअसल, सवाल विधि आयोग द्वारा इस जटिल मुद्दे पर सार्वजनिक विमर्श को लेकर सिर्फ तीस दिन के समय को लेकर भी है। कुछ लोगों का मानना है कि सारे देश में व्यापक विमर्श के बाद ही इस संवेदनशील मुद्दे पर आगे बात की जानी चाहिए। वैसे विपक्षी दल आरोप लगाते रहे हैं कि सत्तारूढ़ दल इस मुद्दे को ध्रुवीकरण के हथियार के रूप में प्रयोग कर सकता है। इस कयास की एक वजह यह है कि भाजपा के दो प्रमुख एजेंडे- राम मंदिर व अनुच्छेद 370 को हटाने के लक्ष्य हासिल किये जा चुके हैं। वहीं देश में यह बहस पुरानी है कि व्यक्तिगत कानून में व्याप्त विसंगतियों को दूर करके एक देश, एक कानून की अवधारणा को मूर्त रूप दिया जाये। लेकिन धार्मिक रूढ़ियों व राजनीतिक कारणों से ये लक्ष्य पाने संभव न हुए। वैसे किसी भी सभ्य समाज व लोकतांत्रिक देश में सभी नागरिकों के लिये समान कानून के प्रावधान एक आदर्श स्थिति होती है। लेकिन भारतीय समाज की कई तरह की जटिलताएं इसके मार्ग में बाधक बनी रही हैं। निस्संदेह, देश की एकता व सद्भाव का वातावरण भी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। किसी भी सभ्य समाज में कानून का निर्धारण धार्मिक आधार के बजाय तार्किक व समय की जरूरत के हिसाब से ही होना चाहिए। जरूरत इस बात की है कि समाज में बहुमत व अल्पमतों के हितों की रक्षा की जानी चाहिए।